कूकर
*बलराज सिंह सिद्धू अनुवाद: सुभाष नीरव
ज्यों ही बस नहर का पुल चढ़ी, मैं सचेत होकर बैठ गया था। पर मैं अधिक देर टिककर बैठ न सका। अपना बैग कंधे पर लटका बस के दरवाज़े की ओर खिसका था। जैसे ही मैंने दरवाज़े की चिटकनी खोलने के लिए हाथ बढ़ाया, पगड़ी के दोनों सिरों को आँखों पर से खींचते हुए कंडक्टर ने मुझे झिड़का था, “खड़ा रह...खड़ा रह...ज्यादा उतावला न हो। उतार के ही जाएँगे। साथ ले जाकर तुझसे चरखा नहीं कतवाना हमें। चलती बस से गिर पड़ा तो हमारे लिए मुसीबत खड़ी करेगा।“
मैं एक तरफ होकर खड़ा हो गया था। पहले तो सोचा, क्यों न बापू के आई.जी. होने का फायदा उठाऊँ। जिस तरह यह बदतमीजी से बोला था, अपनी हस्ती बताकर उसी तरह इसको ईंट का जवाब पत्थर से दे दूँ। मुझे जिस पंजाब पुलिस के कांस्टेबल भी साहिब कहे बिना नहीं बुलाते, उसको यह दो कौड़ी का आदमी यूँ तीखा बोल जाए ? फिर सोचा, चलो छोड़ो। यूँ ही छोटी सी बात का बतंगड़ बन जाएगा। हरेक के साथ सींग फंसाये फिरना भी अक्लमंदी नहीं। रेपुटेशन खराब हो जाती है। मंसूरी, डलहौजी, शिमला, गोवा, नैनीताल जहाँ कहीं भी मैं आज तक अकेला गया हूँ, वहीं से मेरी गुंडागर्दी की रिपोर्ट मेरे घर पहुँचती रही है। ‘एक घर तो डायन भी छोड़ देती है’ वाली कहावत पर अमल करते हुए मैं सारा गुस्सा अंदर ही अंदर पी गया था। दरअसल कसूर अक्खड़ कंडक्टर का भी नहीं था। मुझे बेदाढ़ी देखकर ही उसकी इतनी हिम्मत पड़ी थी। मैंने अपनी ठोड़ी पर फूटते रोयों को छूते हुए गुस्सैली आँखों से कंडक्टर की ओर देखा था, ‘तुम भी बेटा कालेज के लौंडों के ही काबू आते हो। उनके आगे तो गले से आवाज़ नहीं निकलती। मेरे जैसे को तो ऐरा-गैरा ही समझते हो। कोई नहीं बच्चू, दिल्ली दूर नहीं। अगले साल तक हमने भी प्लस-वन की एडमिशन कालेज में ही लेनी है।’ मेरे अंदर लावा अभी तक उबल रहा था।