लंबी पंजाबी कहानी

कूकर

*बलराज सिंह सिद्धू  अनुवाद: सुभाष नीरव 

ज्यों ही बस नहर का पुल चढ़ी, मैं सचेत होकर बैठ गया था। पर मैं अधिक देर टिककर बैठ न सका। अपना बैग कंधे पर लटका बस के दरवाज़े की ओर खिसका था। जैसे ही मैंने दरवाज़े की चिटकनी खोलने के लिए हाथ बढ़ाया, पगड़ी के दोनों सिरों को आँखों पर से खींचते हुए कंडक्टर ने मुझे झिड़का था, “खड़ा रह...खड़ा रह...ज्यादा उतावला न हो। उतार के ही जाएँगे। साथ ले जाकर तुझसे चरखा नहीं कतवाना हमें। चलती बस से गिर पड़ा तो हमारे लिए मुसीबत खड़ी करेगा।“
मैं एक तरफ होकर खड़ा हो गया था। पहले तो सोचा, क्यों न बापू के आई.जी. होने का फायदा उठाऊँ। जिस तरह यह बदतमीजी से बोला था, अपनी हस्ती बताकर उसी तरह इसको ईंट का जवाब पत्थर से दे दूँ। मुझे जिस पंजाब पुलिस के कांस्टेबल भी साहिब कहे बिना नहीं बुलाते, उसको यह दो कौड़ी का आदमी यूँ तीखा बोल जाए ? फिर सोचा, चलो छोड़ो। यूँ ही छोटी सी बात का बतंगड़ बन जाएगा। हरेक के साथ सींग फंसाये फिरना भी अक्लमंदी नहीं। रेपुटेशन खराब हो जाती है। मंसूरी, डलहौजी, शिमला, गोवा, नैनीताल जहाँ कहीं भी मैं आज तक अकेला गया हूँ, वहीं से मेरी गुंडागर्दी की रिपोर्ट मेरे घर पहुँचती रही है। ‘एक घर तो डायन भी छोड़ देती है’ वाली कहावत पर अमल करते हुए मैं सारा गुस्सा अंदर ही अंदर पी गया था। दरअसल कसूर अक्खड़ कंडक्टर का भी नहीं था। मुझे बेदाढ़ी देखकर ही उसकी इतनी हिम्मत पड़ी थी। मैंने अपनी ठोड़ी पर फूटते रोयों को छूते हुए गुस्सैली आँखों से कंडक्टर की ओर देखा था, ‘तुम भी बेटा कालेज के लौंडों के ही काबू आते हो। उनके आगे तो गले से आवाज़ नहीं निकलती। मेरे जैसे को तो ऐरा-गैरा ही समझते हो। कोई नहीं बच्चू, दिल्ली दूर नहीं। अगले साल तक हमने भी प्लस-वन की एडमिशन कालेज में ही लेनी है।’ मेरे अंदर लावा अभी तक उबल रहा था।
सुए के पास पहुँचते ही कंडक्टर ने सीटी मारकर बस रुकवा दी थी। तेज़ दौड़ती बस को रोकने के लिए ड्राइवर ने इतना ज़ोर ब्रेक पर नहीं डाला होगा जितना ज़ोर कंडक्टर का सीटी बजाने में लग गया लगता था। मुझे उतारते ही बस आँधी बन गई थी।
ननिहाल वाले गाँव के अड्डे पर खड़े होकर मैंने पुरानी यादें ताज़ा करने की खातिर चारों ओर नज़रें घुमाकर देखा था। मुझे कुछ भी जाना-पहचाना नहीं दिखा था। आसपास कोई भी सयाना आदमी नहीं था। रजवाहे के दूसरे पार दो बच्चे मैली सी खेसियाँ बदन पर लपेटे बंटे खेल रहे थे। शहर के दमघोंटू और प्रदूषित वातावरण से कोसों दूर आकर पहले तो मैंने गाँव के खुले-फैले माहौल में ताज़ी हवा का मज़ा चखने के लिए लगातार तीन-चार लम्बी और गहरी साँसें ली थीं। फिर अंगड़ाई ली थी जिससे सफ़र की सारी थकान रफू-चक्कर हो गई थी। फिर रजवाहे के किनारे-किनारे पीछे की तरफ जिधर से बस आई थी, उधर चल पड़ा था। डैडी ने जिस तरह मुझे नक्शा बनाकर समझाया था, मैं उसी दिशा में कदम रखता आगे बढ़ता गया।
अपने होश में मैं पहली बार इधर आया था और वह भी अकेला। इससे पहले बचपन में जब मैं बहुत छोटा होता था, तब आया था। तब की सिर्फ़ धुँधली-धुँधली-सी यादें थीं मेरे जे़हन में, उसके अलावा कुछ याद नहीं था।
आतंकवाद के सफाये के बाद पंजाब में अमन और चैन वाला वातावरण फिर से कायम होने पर जितना आम जनता ने परमात्मा का शुक्र मनाया था, उससे कहीं अधिक पुलिस परिवारों ने सुख का साँस लिया था। पंजाब के हालात बिगड़ने पर जो पुलिस परिवार अपने सगे-संबंधियों के जन्म, मरण, विवाह, भोग में शामिल न हो सकने के कारण कट से गए थे, अब शांति बहाल होने पर पुनः अपने रिश्तेदारों से जुड़ने लग पड़ थे। दहशतवाद के संतापी दौर में जब पुलिस वाले मुकाबला किया करते थे तो मुश्किल से एक आधा उग्रवादी ही मरता था। पर खाड़कू तो बदला लेने के लिए जिम्मेदार अफ़सर के सारे खानदान की ढिबरी टाइट करके रख देते थे। उस हो-हल्ले के समय बहुत से पुलिस अधिकारियों के बीवी-बच्चे तो पंजाब छोड़कर दूसरे इलाकों की तरफ कूच कर गए थे। हमने भी उन्हीं दिनों चंडीगढ़ में कोठी खरीदी थी। 1984 के आप्रेशन ब्लू-स्टार और दिल्ली दंगों के उपरांत मेरी ननिहाल के गाँवों की तरफ भी खाड़कू लहर ने काफ़ी ज़ोर पकड़ लिया था। पुलिस में ऊँचे ओहदे वाले अफ़सर का पुत्र होने के नाते मेरा गाँव में जाना तो ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहावत को ही चरितार्थ करना था। क्योंकि पुलिसियों की संतान को अगवा करके उग्रवादी मनचाहा काम करवाते थे। किसी साथी की रिहाई या बड़ी बड़ी फिरौतियाँ उगाहने जैसी घिनौनी कार्रवाइयों में वे बहुत सक्रिय थे। शहरों की अपेक्षा गाँवों में ऐसी वारदातों को वे बड़ी आसानी से अंजाम देते थे। यही कारण था कि मुझे दुबारा कभी ननिहाल नहीं जाने दिया गया था।
अब भी मैं अपनी सवारी से आ सकता था। पर फिर मुझे ड्राइवर और गनमैन के साथ आना पड़ता जो मैं नहीं चाहता था। शुरू शुरू में जब मैं बॉडीगार्ड के साथ कहीं जाता था तो अपने आप को फन्ने खाँ ही समझता था। नौजवान लड़कियों को बिना बताये ही पता चल जाता था कि मैं किसी ऊँचे अफ़सर का साहिबजादा हूँ। पर धीरे-धीरे मेरी समझ में आया कि इसका एक नुकसान भी था। क्योंकि जो धन्नाड्य परिवारों की सुपुत्रियाँ होती हैं, उन पर इन खोखले दिखावों का कोई असर नहीं पड़ा करता। वे तो खुद दिन रात संगीनों के पहरों तले रहती हैं। सिर्फ़ कमज़ोर तबके की लड़कियों पर ही रौब पड़ता है। इस प्रकार जो रईसजादियाँ होंती, वे मेरे हाथों से निकल जाती थीं, क्योंकि मेरा बॉडीगार्ड उनकी तरफ यूँ आँखें फाड़ फाड़कर देखता था जैसे कोई सांड गायों की तरफ देखता है। अंगरक्षकों की इस बुरी आदत के कारण कई सुन्दर सुन्दर लड़कियों से मुझे हाथ धोने पड़े हैं। इसलिए अब मैं अकेला ही आना-जाना पसंद करता हूँ। यही वजह थी कि कबाब में चुभने वाली हड्डियों को एक तरफ करके मैं सुबह सुबह अकेला ही बस में बैठ गया था। 
यूँ तो जुल्फ़ों के साथ खेलने के अवसर अपनी कार की अपेक्षा बस में कहीं अधिक होते हैं। योद्धों को जंग के लिए और जवान लड़कों को आशिकी के लिए सदा कमर कसकर रखनी चाहिए। इश्क लड़ाने के मामले में मैंने कभी ढील नहीं बरती। हमेशा तैयार-बर-तैयार रहता हूँ। हमारे पड़ोसी पंडित जी अक्सर कहा करते हैं, “न जाने कब, कहाँ, कैसे, किस भेष में नारायण मिल जाएँ।“ कोई पता नहीं होता, कब कहाँ, कौन सी चलती फिरती आग झुलसाकर रख दे। जवानी में हसीन हादसे होते देर नहीं लगती।
बस में चढ़ते समय मैंने क्या क्या नहीं सोचा था। पर एक भी काम की सूरत नहीं दिखी। लुधियाना में ठिठुरती ठंड में लगाये गए पहलवानी के चक्कर भी व्यर्थ ही गए थे। कुम्हार मंडी वाले जगदम्बा होटल में भी कव्वे ही बोलते थे। न जाने सुबह सुबह कौन मनहूस माथे लग गया था। खै़र, जैसा कहते हैं न, उम्मीद पर दुनिया कामय है, वैसे ही आस का पल्लू कसकर पकड़ते हुए मैं पैदल चलता हुआ आसपास के खुले दरवाज़ों वाले घरों में झांके जा रहा था। क्या मालूम, कोई बम या पटाखा दिख ही जाए। बड़ी तमन्ना थी, किसी ग्रामीण माल का स्वाद चखने की। शहर वालियों से तो जी उतरा हुआ था।
जाड़े की गुनगुनी धूप में मैंने पक्की सड़क पर से उतरकर गाँव का कच्चा राह पकड़ लिया था। जब मेरे करीब से कोई गुजरता था तो मैं पैर संभल संभलकर उठाता और धरता था। मुझे डर रहता था कि मेरे बैग में पड़ी हुई टीन की पीपी कहीं खड़क न जाए। नानी जब हमें मिलने आई थी, मेरे लिए देशी घी की पंजीरी बनाकर उस पीपी में ले आई थी। मम्मी ने वह पीपी कबाडि़ये को बेचने की बजाय मुझे नानी को लौटाने के लिए पकड़ा दी थी। मेरे जैसे अप-टू-डेट, नौजवान, अकड़बाज लड़के का पीपी उठाकर चलना तो परसनेल्टी पर दाग लगवाने वाला काम था। मैं पीपी को ले जाना तो नहीं चाहता था, पर मजबूरी भी कोई चीज़ होती है। घरवालों का हुक्म जो बजाना था। रास्ते में नंबर न डाउन हों, इसलिए मैंने पीपी अख़बार में लपेटकर बैग में डाल ली थी। साँप भी मर गया था और लाठी भी टूटने न दी थी। पीपी भी अपनी जगह पहुँच गई थी और मेरी ईमेज भी खराब नहीं हुई थी।
पीली कली वाले घर के सामने बरगद का पेड़। पेड़ के साथ की गली में जाकर आखि़र में एक दुकान। दुकान की बगल से मुड़ता एक चौड़ा रास्ता। बायीं तरफ के दस मकान पार करके ग्यारहवां घर। मुझे दिए गए नक्शे में बारीक से बारीक जानकारी होने के कारण घर तलाशने में कोई ख़ास परेशानी नहीं आई थी। मैं नीले रंग के लोहे के बड़े-से दरवाज़े वाली कोठी के आगे जा खड़ा हुआ था। घंटी की तलाश में मैंने दोनों खम्बों को ऊपर से नीचे तक देखा था, पर मुझे कोई घंटी नज़र नहीं आई थी। जब दरवाज़े को ही थपथपाने लगा तो देखा कि फाटक को तो बाहर से कुंडा लगा था। शायद नानी टाइम पास करने के लिए किसी के घर गई होगी, इसलिए जाते समय बाहर से कुंडा लगा गई होगी। कौन सी बेगानी जगह हूँ ? कुंडा खोलकर अंदर चला जाता हूँ। यूँ ही दरवाजे़ में कितनी देर खड़ा रहूँगा। मैं मन ही मन सोचता हुआ बैग नीचे रखकर कुंडे को खोलने लग पड़ा। कुंडे बहुत सख़्त था। रब जाने नानी कैसे खोलती या बन्द करती होगी। कुंडा खुलता कम है और शोर ज्यादा मचाता है। तेल देने के अभाव में इस प्रकार जाम हुआ पड़ा था जैसे मुद्दतों से खोला ही न गया हो।
कुंडे का खड़का सुनकर जहाँ मैं खड़ा था, उससे थोड़ा हटकर कोठी का छोटा जाली वाला लकड़ी का दरवाज़ा खुला और उसमें से मिश्री जैसी मीठी आवाज़ आई, “हाँ जी, कौन है ?“
किसी अजनबी खातून का अक्श जाली में से देखकर मैं एकदम घबरा उठा था। शायद यह किसी दूसरे का घर होगा। मैं कुंडे को बीच में ही छोड़कर अपना बैग उठा उस लकड़ी वाले दरवाजे़ की ओर चला गया था।
“जी मैं चंडीगढ़...।“ भौंचक्क-से खड़े की बौखलाहट में ढंग से बात नही की गई।
वह बाहर गली में निकल आई। सारी गली नूर-नूर हो गई थी। दरवाज़ा डोर-शटर के कारण अपने आप बन्द हो गया था। कदकाठी और उम्र में वह मेरी हरउम्र ही लगती थी। अधिक से अधिक एक-आध इंच नीचे-ऊपर होगी या साल दो साल इधर-उधर का अंतर होगा। इससे अधिक नहीं। उसने गंदल जैसी पतले शरीर पर सादी-सी, काली रंग-बिरंगी फूलों वाली प्रिंटिड कुरती, काली चुन्नी और खुले पोंहचों वाली काले रंग की प्लेन सलवार पहन रखी थी। इस पोशाक में महफूज़ किया हुआ कच्चे दूध जैसा गोरा-चिट्टा बदन खूब उभर रहा था। उसके बाल घने काले थे और उसने करीने से दो पतली चुटियां सिर के दोनों ओर बना रखी थीं जो पीछे की बड़ी चोटी में मिला दी गई थीं। कुदरत की इस शाहकार मूरत को देखते ही मेरे फ्यूज उड़ गए थे। उसके शबाब के चुम्बकीय आकर्षण ने मेरा दिल-ओ-दिमाग और ज्ञानेन्द्रियाँ अपनी ओर खींचकर बाँध ली थीं। मुझे खड़ा आँखें सेकता देखकर वह बोली थी, “किससे मिलना है ?“
“जी...मुझे गुरमुख सिंह के घर जाना था।“ घबराहट में अपने नाना का नाम बताकर मैंने अपनी मंजि़ल की पड़ताल की थी।
“जी वो तो...।“ उस नवयौवना की बात अभी बीच में ही थी कि अंदर से एक और आवाज़ आई।
“बेटी कौन है ?“ 
नानी की आवाज़ मैं पहचान गया था। लंगड़ाती चली आती नानी को देख मैंने जवाब दिया था, “मैं हूँ बेबे।“
उस कामिनी ने पीछे हटकर मुझे अंदर जाने दिया।
“ओ....माँ सदके....सवेर का बनेरे पे कौआ बोलता था। आज किधर से राह भूल गया ?“ मुझे देखकर नानी को चाव चढ़ आया था। 
“पैरीपैना...।“ मैं झुककर करीब आई नानी के घुटनों तक अभी हाथ ले ही गया था कि नानी ने मुझे कंधों से पकड़कर गले से लगा लिया।
“तगड़ा है ?“
“हाँ बेबे, घोड़े जैसा।“ मैंने अपने मजाकिये लहजे में नानी का जवाब दिया था।
फिर, जैसे पुरानी बूढ़ी औरतों में गले मिलने का रिवाज़ होता है, नानी दो तीन बार कभी दायें और कभी बायें, मुझे गले लगाती रही जैसे ईद वाले दिन मुसलमान एक दूसरे के गले मिलते हैं। कसकर मुझे सीने से लगाते हुए प्यार करती रही।
मिलनी की यह रस्म समाप्त होने के बाद नानी ने उस हसीना को मेरे बारे में बताया था, “राजू है मेरा दोहता...चंडीगढ़ वाला।“
मैंने उस रूपवती की ओर देखा तो उसने मुस्कराकर मेरा वैलकम किया और मुझे बचे-खुचे को भी लूट लिया। उसकी इक्यावन तोपों जैसी ‘सत्श्री अकाल’ के बदले मैंने सिर झुकाकर सजदा करते हुए खामोश फतह बुलाई थी। उससे अनजान होने के कारण मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि नानी कुछ बताएगी, पर नानी ने उसके बारे में कुछ नहीं बताया था कि वह कौन है।
“चल, अंदर आ जा।“ नानी आगे आगे, मैं बीच में और मेरे पीछे वह। हम तीनों आगे-पीछे अंदर की ओर चल पड़े थे।
“गुड्डी, ऐसा कर मेरे पुŸा, डलैवर को कह, कार अंदर ही कर ले।“ नानी ने खड़ी होकर उस दामिनी को हाथ से इशारा करके गेट खोलने का हुक्म दिया था।
“नहीं जी।“ पहले मैंने उसे रोका, फिर अपने वाक्य का बाकी हिस्सा पूरा करते हुए नानी से संबोधित हुआ था,
“नहीं बेबे, गाड़ी नहीं है। मैं बस पर ही आया हूँ।“ 
“हाय-हाय, इतनी दूर बसों में किसलिए धक्के खाने थे भला। उन साबुनदानियों-सी का क्या अचार डालना है, अगर सुख ही नहीं लेना। यूँ ही फालतू जगह रोकने के लिए खड़ी कर रखी हैं ? ज्यादा कंजूसी न किए जाया करो।“
“वो...“ मैं सफाई देने ही लगा था कि नानी ने पीछे मुड़कर देखा था।
“और कौन कौन आया है ?“
“कोई नहीं। मैं अकेला ही आया हूँ।“
मेरा उŸार सुनकर एकाएक नानी का मुँह उतर गया। खुशी और उमंग का चाँद नानी के चेहरे के अम्बर से जाने कहाँ और किन बादलों में छिप गया था। दरवाज़े पर से मायूस नज़रें मोड़कर उन्हें धरती में गाड़ती हुई वह चुपचाप फिर चल पड़ी थी। मेरे आने से नानी को जो अपार खुशी हुई थी, वो ‘मैं अकेला ही आया हूँ’ वाक्य ने एकाएक गायब कर दी थी।
वो रूप का क़हर ढाने वाली भी हमारे संग संग चली आ रही थी। मैंने चलते चलते सारे घर में नज़रें दौड़ाई थीं। आँगन बहुत खुला था। छोटे रैंक वाले तीन चार अफ़सरों के क्वाटरों जितनी जगह तो होगी ही। इतने बड़े आँगन में चल चलकर घुटने तो खुद ही दुखने लगते होंगे। मैं नानी के लंगड़ाकर चलने का कारण तलाशता हुआ चलता रहा था। सारे आँगन में चिकनी चमचमाती चिप्स फैली थी। सूरज की किरणों के चुम्बन से उस पर दूना रूप चढ़ा हुआ था। चमचमाते फर्श से वहाँ ताज़ा ताज़ा लगे पौचे का सबूत मिल रहा था।
“देखना पुŸा। बच के आना, फिसल न जाना कहीं।“
नानी की इस चेतावनी के बाद मैं बड़े एतिहात से पैर रखने लग पड़ा था कि तभी मेरा पैर फिसल गया। मेरा हाथ कपड़़े सूखाने वाली रस्सी को चला गया था और मैं बमुश्किल गिरने से बचा था। 
“देखा, मैंने कहा था न, अभी टाँग-बांह तुड़वा लेता।“
मैं शर्मिन्दा-सा होकर अजीब-सा मुँह बनाकर आगे बढ़ा। काफ़ी आगे चलकर दायीं तरफ दीवार के साथ रसोई थी और बायीं तरफ गुसलखाना और पखाना बने हुए थे। बीच में बरामदा छता हुआ था। विशाल भवसागर जैसे आँगन को पार करने के उपरांत हम बरामदे में पहुँच गए। सारे बरामदे के आगे लकड़ी की चौखट वाली जाली लगाकर मक्खी-मच्छर की रोकथाम का प्रबंध किया हुआ था। बरामदे में से गली पिछले मौहल्ले की ओर जाती थी जिसके आसपास दोनों तरफ चार-चार कमरे थे। बरामदे में बिछी हुई चारपाई पर बैग रखकर मैं बैठने लगा था तो नानी ने रोक दिया था, “ठहर जा। मैं कुर्सी मंगवाती हूँ।“
“कोई नहीं। ये चारपाई ही ठीक है।“
“कोई क्यों नहीं, रब की कृपा से सब कुछ है।“ नानी ने मजाक में मेरी बात को रद्द करके मुझे कच्चा कर दिया था। पर मुझे खुशी हुई थी कि चलो, नानी के चेहरे पर खुशी लौटी तो सही।
“जा बिल्लो, कुर्सी ला अंदर से दौड़कर।“
वह हंसगामिनी तेज़ी से अंदर चली गई थी।
“चारपाई का बाण चुभेगा तेरे।“ नानी ने कुर्सी मंगवाने का मकसद स्पष्ट किया था।
मैं खड़े होकर कुर्सी की प्रतीक्षा करने लग पड़ा था। नानी को याद था, बचपन में मैं बाण की चारपाई पर नहीं बैठा करता था और बाण के चुभने की शिकायत किया करता था। 
“तुम्हारे हर किसी के पास कारें हैं। बसों पर आने की क्या बिपदा पड़ गई थी ?“ नानी ने हैरानी प्रकट की।
वह मुझे कुर्सी देकर चली गई थी। मैं चारपाई पर बैठी नानी के पास कुर्सी रखकर बैठ गया था। वह क़हर ढाने वाली लड़की मेरे आने से पहले बरामदे में पौचा मार रही थी। चुन्नी नानी के पास चारपाई पर रखकर वह फुर्ती से शेष बचा पौचा फेरने लगी तो मैं और नानी आपस में बातें करने लग पड़े थे।
“बाहर से कुंडा लगा था, मैंने सोचा, बेबे किसी के घर गई होगी।“
“न, जाना तो किसके था ? यूँ ही कोई बच्चा इल्लत करता लगा गया होगा। फाटक तो कभी खोला ही नहीं। कौन सा ट्रक निकालना होता है।“
मेरे सामने पैरों के बल बैठी वह चंद्रमुखी फर्श पर पड़े हुए धब्बे रगड़-रगड़कर उतार रही थी। एक तो वह नीची जगह पर बैठी थी, दूसरा वह कभी कभी कुछ ज्यादा ही झुक जाती थी और उसके सूट का गला और नीचे हो जाता था। मैं उससे ऊँची जगह पर बैठा था। मेरी निगाहें सीधे मंदिर की घंटियों जैसे लटकते सुडौल और तीखे स्तनों पर जा पड़ी थीं। यद्यपि मैंने निगाह तो हटा ली थी, पर उधर से ध्यान नहीं हटा था। उस दृश्य को याद करके दिल में कुछ हुआ था। मैंने सोचा, पाप तो हो ही गया है, क्यों न लगते हाथ एक बार और देख लूँ। परमात्मा से दोनों बार की भूल एक बार ही बख्शवा लूँगा। फिर दिमाग ने यह कहकर बरज दिया था - ‘क्या पता तेरा उससे क्या संबंध है। यदि कोई विवर्जित रिश्ता हुआ, फिर क्या करेगा ?’
आदत से मज़बूर दिल ने भी ख़ार खाकर अपना पक्ष पेश किया था - ‘पर यह कैसे हो सकता है ? यदि कोई करीबी रिश्ता होता तो मुुझे ज़रूर पता होता। यदि कोई संबंध हुआ भी तो दूर का ही होगा। इतना आजकल कौन पूछता है ? यूँ सोचने लग जाओ तो हर कोई ही बहन बन जाए।’
मैंने दुबारा दर्शनों की अभिलाषा से दीदों की दुनाली से निशाना साधा था। ऐसी लौ लगी थी कि केन्द्रबिन्दु से किसी दूसरी तरफ देखना हो ही नहीं सका था। वासना की एक चिंगारी मेरे अंदर सुलग उठी थी। हर सेकिंड के गुज़रने के साथ मेरे अंदर उŸोजना की आग की लपटों का कद बढ़ने लगा था। नानी से बचना भी आवश्यक था। इसलिए दिखावे के तौर पर तो मैं नानी की तरफ ही देखता रहा था, पर तिरछी आँख मेरी उस चंचल लड़की के सीने की ओर ही दौड़ दौड़ जाती थी।
“गाड़ी ले आता। साथ ही, तेरी माँ भी आकर मिल जाती। उसका आने को चिŸा नहीं किया ?“ नानी ने फिर उदास-सा होकर सवाल किया था।
“मम्मी-डैडी तो दिल्ली गए हैं।“ मैं रूखा-सा उŸार देकर अंदर ही अंदर फुसफुसाया था, ‘चुप कर बेबे। क्यों स्वाद खराब किए जाती है ? मुझे फर्सत में हो लेने दे, फिर रो लेना रोने।’
“खै़र तो है न ?“
“हाँ हाँ, एक नई कार निकली है सीलो, वही लेने गए हैं। चंडीगढ़ में तो अभी आई नहीं।“ मैंने अपनी बात नानी से ज्यादा उस छैल छबीली को सुनाकर कही थी।
“पुरानियों को क्या गोली बज गई ? बला की सोहणी पड़ी थीं। तुम लोगों के भी पैसे नहीं टिकते।“ नानी ने नाक चढ़ाया था।
वह नागिन अपना काम खत्म करके गन्दे पानी वाली बाल्टी उठाकर बाहर चली गई थी। रंग में भंग पड़ी तो मैंने सारी एकाग्रता नानी को समर्पित कर दी थी।
“नहीं, यह बात नहीं मारूति तो तुम्हें पता ही है, बेच दी थी। उसकी अब कद्र नहीं रही। ऐरे गैरे के पास हो गई। अब तो गंवार लोग भी लिए फिरते हैं। जिप्सी तो सरकारी है। कई हाथों में पड़ी होने के कारण दूसरे-तीसरे दिन बिगड़ी रहती है। वैसे भी उसमें तो होमगार्डिये ही चढ़े अच्छे लगते हैं। और इस्टीम का मुझसे एक्सीडेंट हो गया था।“
“रे कैसे ? तेरे चोट-वोट तो नहीं लगी ?“ नानी एकदम चौंक उठी थी।
“नहीं, मेरे तो खरोंच भी नहीं आई, पर गाड़ी सारी ऐसी इकट्ठी हो गई जैसे सेक लगने पर मोमजामा सिकुड़ जाता है।“
“चल, खसमां नूं खाये गड्गी ! तेरी जान बच गई, इतना थोड़ा है ? बंदा रहना चाहिए। गाडि़यों का तुम लोगों को क्या कोई घाटा है ? शाम को चाहे दस दरवाजे़ के आगे खड़ी कर लो। वैसे तू तो तेज़ भी बहुत चलाता है। आहिस्ता चलाया कर, कोई पीछे पड़ा होता है क्या ?“
मैंने कोई हुंकारा नहीं भरा था। वह सुंदरी हाथ-बांह धो-पौंछकर नानी से पूछने आई, “इनके खाने-पीने को कुछ लाऊँ ?“
“हाँ भई, बीबा रोटी तो खाएगा ही। कितना लम्बा सफर है। तड़के घर से निकला होगा।“
मेरी तो पहले ही टंकी फुल थी। कुछ और अंदर डालने की ज़रा भी गुंजाइश नहीं थी। मैंने इन्कार कर दिया था, “न बेबे, रोटी नहीं। मैंने लुधियाना में प्रकाश के होटल में भटूरे खा लिए थे। चौड़े बाज़ार में थोड़ा-सा काम था।“
“तेरी पŸो चाटने की आदत नहीं गई। भटूरे कौन सा इतनी देर तक टिकते हैं। कब के हजम हो गए होंगे।“ नानी ने मोह जताया था।
“न, मेरे लिए कौन सा कोई पराया घर है। ज़रूरत पड़ी तो मैं खुद कह दूँगा। कोई शरम थोड़े है।“
मैं सोच रहा था कि मेरे इतना कहने पर नानी खाने वाला प्रोग्राम ठप्प कर देगी। पर नानी कहाँ टलने वाली थी।
“ऐसा कर गुड्डी, रसोई में मौसमियाँ पड़ी होंगी, ताज़ा ताज़ा जूस बना ला। कब से पड़ी हैं, सूखे जाती हैं। तुझे कहा, तू खा लिया कर, पर तू भी कौन-सा सुनती है।“
“जी अच्छा।“ मदमस्त हथिनी की तरह झूलती हुई वह गजगामिनी चली गई थी। मैं उसकी मटकती कमर की ओर टकटकी लगाकर देखता रहा था। गजब की मस्ती थी उसकी चाल में। अगर कहीं कैटवाक करती मॉडलों के बराबर चले तो बोलती बन्द कर दे उनकी। मोरों की चाल को भी मात देता था, उस नखरीली का मटक मटक कर पैर रखना।
मैं जब से आया था, तब से ही उस नाज़नीन के बारे में पूछने को उतावला था, पर चुप इसलिए रहा था कि शायद नानी खुद ही घड़े पर से ढक्कन उठा देगी। पर नानी ने तो जैसे उसकी जानकारी गुप्त रखने की सौगंध उठा रखी थी। आशिकों के पास भी कौन सा सब्र के भंडारे होते हैं ? यारों और चोरों को तो मुश्किल से रब सब्र बख्शता है। मैं भी बेसब्रा हुआ बैठा था। आखि़र मैंने जैसे तैसे साहस करके पूछ ही लिया था, “बेबे, ये लड़की कौन है ?“
नानी ने पहले तो इधर-उधर देखा और तसल्ली की कि कहीं वह लड़की आसपास तो नहीं। फिर जैसे चुगली की जाती है, उस तरह मेरे करीब होकर घुंडी खोलने लगी, “वो अपना सीरी होता थ न ? नरैणा। जिसकी अपना चारा काटते हुए बांह कट गई थी। उसी की लड़की है। बहुत ही शरीफ, सच्ची और प्यारी लड़की है। मुझे तो रब जैसा आसरा है इसका। जी जान लगाकर दिन रात सेवा करती है मेरी। तू तो खुद सयाना है, मेरे तो नैण-प्राण कम होते जाते हैं दिन रात। मेरे सब काम यही करती है। दिन रात मेरे पास रहती है। मुझे संभालती है और मेरा सारा गूं-मूत करती है बेचारी। तुझसे क्या छुपाना। इतना तो कोई सगा भी नहीं करता, जितना यह करती है।“
उसकी शख्सियत पर प्रकाश डालते डालते नानी चुप साध गई थी। नानी के बताने पर यह नुक्ता तो साफ़ हो गया था कि वह सगे-संबंधियों में से नहीं थी। अगर कहीं मामी-मौसी निकल आती तो सारा खेल ही खराब हो जाता। नरैणे सीरी की लड़की बताकर नानी ने भी मानो हरी झंडी दे दी थी। वैसे देखने में तो वह मज़दूरों की लड़की लगती ही नहीं थी। जमींदारिनों से ज्यादा रौब-दाब था उसका। सादगी और सौंदर्य की मूरत की नानी से तारीफ़ें सुनकर मैं उस पर और भी ज्यादा मोहित हो गया था।
नानी आखि़र बूढ़ी थी। बूढ़ी औरतें बात बीच में कहाँ छोड़ सकती हैं ? उन्हें तो एक बार छेड़ दो। बस, फिर आयशा से शुरू होकर जुल्का तक सब सुनाकर ही दम लंेगी। नानी ने भी दम लेने के बाद और ज्यादा धीमी आवाज़ में प्रसंग जारी रखा था, “यूँ तो बेशक नरैणे का अपना ही कसूर था। शराब में नशेड़ी हुए ने चलती मशीन के गंडासे में हाथ अड़ा लिया था। पंचों ने तो दस कहा था, पर तेरे नाना ने बीस हज़ार दे दिया था कि गरीब की आह न लगे। छोटे होते ही हमारे यहाँ आ गया था। मैंने कहा हुआ है नरैणे से कि तेरी लड़की के विवाह का सारा खर्च मैं करूँगी। चाहे जितने पैसे लग जाएँ, मैं लगाऊँगी। जब तक कोई लड़का नहीं मिलता तब तक मेरी सेवा करे।“
वैसे उसका कमसिन डीलडौल भी उसके कुआंरे होने की गवाही भरता था, पर नानी ने जब यह बचा हुआ रहस्य खोला तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा।
नानी ने ठंड महसूस करते हुए कंपकंपी सी ली थी, “यहाँ तो पाला है, बाहर धूप में चलते हैं।“
मुझे कोई आपŸिा नहीं थी। मैं उठकर चारपाई उठाने लगा था कि नानी ने रोक दिया था, “इसे पड़ा रहने दे यहीं। बाहर दूसरी पड़ी है।“
नानी ने बरामदे के दरवाज़े के दोनों पल्ले खोलकर बीच में गुटके फंसा दिए थे ताकि हवा लगने से गीला फर्श जल्दी सूख जाए। हम बाहर आ गए थे। लोहे के पाइप का निवार वाला फोल्ंिडग सिंगल बैड दीवार के साथ लगाकर रखा हुआ था। मैंने उसको खोलकर बिछाया और नानी के साथ उसी पर बैठ गया।
मुहब्बत की पहली स्टेज पर महबूब के बारे में जितनी जानकारी की ज़रूरत होती है, वह तो मैं नानी से प्राप्त कर चुका था, पर उसके नाम की अभी तक कोई जानकारी नहीं मिली थी। क्या हो सकता है इस हूर का नाम ? मेनका ? उर्वशी ? नहीं ! नहीं ! शकुंतला ? न। फिर नूरी या हुस्ना होगा ? अरे नहीं ! हीर, सोहणी, ससी साहिबा, पद्मनी। बस मैं अपने दिमाग में उसके नाम को लेकर अटकलें लगा ही रहा था कि यह गुत्थी भी खुद ही सुलझ गई थी, जब नानी उसी वक्त बोली थी, “बेटी जीती ! थोड़ा काला नमक भी डालकर घोल लेना अच्छी तरह।“
अरे वाह जीती ! और भला उसका नाम क्या हो सकता था ? पहली नज़र में ही मैं अपना सब कुछ उसको हार बैठा था। जीती तो बैठी थी वो मुझे। मारकर रख दिया था इस जीती ने मुझको।
पैदल चलकर आया होने के कारण मुझे गरमी लग रही थी। मैंने जैकेट उतारकर रख दी थी। जहाँ मैं बैठा था, रसोई वहाँ से बिल्कुल सामने थी। नानी की पीठ थी उसकी तरफ और मेरा मुँह सामने था। रसोई का दरवाज़ा खुला होने के कारण मौसम्मी छीलती जीती मुझे साफ़ दिख रही थी। छिलके उतारकर चार मौसम्मियाँ उसने ज़ार में डाल दी थीं और जूसर का बटन दबा दिया था। ब्लेड ने मौसम्मियों के चीथड़े उड़ा दिए थे। जूस निचले रास्ते से कटोरे में गिरने ही लगा था कि चलते चलते जूसर का शोर एकदम सन्नाटे में बदल गया। जूसर के अचानक बंद हो हाने के कारण नानी ने पीठ घुमाकर पीछे की ओर देखा।
जीती भी जूसर के इस तरह रुक जाने से परेशान थी। उसने बटन को दो तीन बार ऊपर-नीचे किया था। पर जूसर नहीं चला था। फिर उसने बल्ब का स्विच ऑन करके देखा, बल्ब भी नहीं जला था तो वह समझ गई थी कि लाइट चली गई है।
“ले, आगे न पीछे, इस कमबख्त ने आज ही जाना था।“ नानी ने गिला-सा किया।
“अब ?“ जीती रसोई से बाहर आकर हमारे पास खड़ी हो गई थी।
“जनरेटर चला ले, और क्या।“ नानी हर हीले मुझे जूस पिलाना चाहती थी। शहर वालों की मेज़बानी और गाँव वालों की मेहमान नवाजी में यही तो बड़ा अंतर होता है। शहरी लोगों का दस्तूर होता है कि यदि कोई अन्न-पानी पूछने के जवाब में रिवायती तौर पर मना कर दे तो दुबारा पूछते ही नहीं। परन्तु गाँव के लोग सूखा नहीं लौटने देते। जबरन खिला कर छोड़ेंगे चाहे उससे खाया जाए या नहीं।
एक बार मन में आया कि नानी से कहूँ, ‘कोई बात नहीं बेबे, रहने दे जूस को। पहले ही मौसम ठंडा है।’ पर मैंने मुँह बन्द ही रखा था।
“बूट उतार ले। टाँगें ऊपर करके ठीक से बैठ जा। ऐसे बैठा है जैसे जूती उठाकर भागना होता है।“
नानी की बूढ़ों वाली बड़बड़ सुनकर भी मैंने अनसुना कर दिया था। जो नीली छतरी वाला करता है, ठीक ही करता है। मेरा हृदय प्रसन्न हो उठा था कि चलो, अच्छा हुआ जो बिजली चली गई। उससे भी बढि़या हुआ था कि नानी ने जनरेटर चलाने को कहा था। यह तो खुद ही रब ने सबब बना दिया था। छोटे-मोेटे आदमी से तो इंजन का हैंडिल भी नहीं हिला करता, फिर जीती अकेली कैसे चला सकती थी। जनरेटर चालू करते समय मैं अपने डोले जो डंबल उठा उठाकर बनाये थे, जीती को दिखाकर उसको प्रभावित कर लेना चाहता था। सूरत की अपेक्षा सुंदर शरीर पर औरत ज्यादा मरा करती है। मैं एक ही झटके में कुल बटा कुल अंक लेने के लिए पहले ही बांहें ऊपर चढ़ाने लग पड़ा था। डोले नंगे नहीं होंगे तो जीती को दिखेंगे कैसे ?
दूर मुख्य द्वार के नज़दीक ही जनरेटर रूई की बोरी के नीचे ढका पड़ा था। जीती जनरेटर की तरफ चल पड़ी थी। उसके अप-डाउन, अप-डाउन करते नितम्बों को मैं निहारता रहा था। मैं समझता था कि वह बोरी उतारकर जनरेटर पर पड़ी हुई गर्द झाड़कर मुझे हाँक लगाएगी, पर मेरे देखते ही देखते उसने हैंडल ऊपर उठा लिया था और इंजन को यूँ घुमाने लग पड़ी थी जैसे इंजन नहीं सिलाई की मशीन की हत्थी हो। चक्कर की स्पीड बनने पर उसने तुरंत कील फेंककर हैंडल निकाल लिया था। साइलेंसर में से धुआँ फेंकता धुक-धुक करता इंजर स्टार्ट हो गया था। सारी योजना धरी की धरी रह जाने से मैं डोले सहलाता रह गया था। कसरत करके बनाये गए शरीर पर मेरा सारा गर्व चकनाचूर हो गया। ठंडा होकर बैठते हुए मैंने गर्दन झुका ली थी। अंधे झोटे जैसा ज़ोर था उसके कोमल और लचकीले शरीर में। उसने अपनी ताकत का  प्रदर्शन करके मुझे चारों खाने चिŸा कर दिया था।
जब जीती जूस लेकर आई थी तब मैंने गिलास पकड़ते समय उसके दोनों हाथों की उंगलियाँ ध्यान से देखी थीं। लाइन तो क्लियर ही है। छाप-छल्ले रहित उसकी उंगलियाँ देखकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई थी। यह तथ्य भी सामने आ गया था कि उसका किसी के साथ इश्क का चक्कर नहीं चलता था। यदि कोई आशिक होता तो प्रेम निशानी के रूप में कोई छल्ला-मुंदरी उसने अवश्य पहना होता।
जीती के करकमलों द्वारा तैयार किया गया जूस का गिलास भी मदिरा के प्याले जैसा था। मुझे पहला घूंट भरते ही पीटर स्कॉट की बोतल जैसा नशा हो गया था। जी करता था, वह पिलाती रहे और मैं पीता रहूँ। पर पेट भी तो देखना था, इसलिए एक गिलास लेकर ही मैंने बस कर दी थी।
मुझे कुहनी के सहारे आधा लेटा और आधा बैठा देखकर नानी चारपाई के एक कोने की ओर खिसक गई थी, “ले, ठीक से लेट जा। थोड़ी देर कमर सीधी कर ले। दो ढाई घंटे का लम्बा सफ़़र करके आया है।“
पर मैं ऊपर उठकर चौकस आसन में बैठ गया था। कुछ पल चुप रहने के बाद मैं खड़ा होकर अपने पीछे की ओर बाथरूम के आगे लगे वॉशबेशन के पास चला गया और सिंक के ऊपर जड़े दर्पण में झांककर पगड़ी ठीक करने लगा। भापों की तरह मैं भी पगड़ी में कभी बल नहीं पड़ने देता। बाज (सलाई) को हमेशा पगड़ी में खोंसे रखता हूँ। जैसे ही खरबूज की फाँकों की तरह चिने पेंचों में कोई बल आया देखता हूँ, तभी बाज मारकर उसे ठीक कर देता हूँ।
“अब इस पग्गड़ को उतार भी दे। हल्का-सा कोई साफ़ा लपेट ले।“
“नहीं, पगड़ी ही ठीक है।“
नानी आगे कुछ नहीं बोली थी। ऐसे कैसे मैं उतार देता ? सवेरे पूरा घंटा लगाकर तो बाँधी थी। वहाँ से मैं बरामदे की ओर चल पड़ा था। सहज स्वभाव ही फोन का चोगा उठाकर कानों से लगाकर देखा तो टेलीफोन डैड पड़ा था। मेरी समझ में आ गया था कि जब भी हम नानी को फोन किया करते हैं तो ‘अभी रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं, कृपया थोड़ी देर बाद कोशिश करें’ वाला संदेश क्यों सुनने को मिलता है।
“घर फोन करना है ? यहाँ से नहीं होगा। भूंदडि़यो जाकर करना पड़ेगा। गाँव की तो लाइनें ही खराब रहती हैं। मैंने तो हार कर एस.टी.डी. कटवा दी। यूँ ही फालतू के पैसे देने का क्या फायदा ?“ नानी की निगाह मेरी तरफ ही थी।
“मैं तो यूँ ही देखता था। आते समय मानी उतरकर पी.सी.ओ. से फोन करके ठीकठाक पहुँचने की इŸालाह दे दी थी।“
फोन रखकर मैं अंदर से अपना बैग उठाकर बाहर ले आया था। बैग की जिप खोलकर मैंने कोटी और शॉल निकालकर नानी को पकड़ाते हुए कहा था, “बेबे ये ले, ये मैं तेरे लिए लाया हूँ। घूमने गया था आगरा की तरफ।“
नानी दोनों चीज़ों को पकड़ती हुई बोली थी, “तुम लोग आकर फेरा लगा जाया करो। मुझे ये सौगातें क्या करनी है ?“
खाली गिलास उठाने आई जीती भी खड़ी होकर कोटी और शॉल देखने लगी थी।
“भरतपुर, फतहपुर, सीकरी, सिकंदरा इस बार सब देख मारा। मथुरा का कोई मंदिर नहीं बचा होगा जहाँ माथा न टेका हो। आगरे से पेठा भी लाया हूँ।“ इतना कहकर मैंने बैग में से पेठे वाले पोलीथिन के सीलबंद पैकेट निकाल कर चारपाई पर रख दिए थे।
“रे इतने ? सारी हट्टी ही खरीद लाया है ?“
“न, थोड़ा-थोड़ा ही लाया हूँ बेबे। अलग अलग किस्म का है। ये उठा सादा पेठा, संदली पेठा, अंगूरी पेठा, ये गुलाबी पेठा और केसर पेठा।“ मैंने बारी बारी से सारे पैकेट उठाकर नानी को भाँति-भाँति के पेठों की जानकारी दी थी।
“इतना बोझ क्यों ढोना था ? मुझे तो शूगर है। मुझसे कहाँ खाया जाएगा। तुम ही खा लेते।“
“हम तो हफ्तेभर से खा रहे हैं। बहुत खाया है। अब तो जी भी ऊब गया। कोई नहीं, धीरे धीरे रोटी की जगह सवेरे-शाम पेठा ही खाती रहना।“ मैंने नानी को अपना सुझाव दिया था।
“पता है बेबे, फतहपुर किले में सलीम चिस्ती की दरगाह है। बड़ी ही करनी वाले पीर हैं। बड़ी दूर दूर से लोग वहाँ मन्नतें मांगने आते हैं। कहते हैं, वहाँ मज़ार पर धागा बाँध के जो चाहे मन्नत मांग लो। मन की मुराद पूरी हो जाती है। हिंदुस्तान के बादशाह अकबर के, कहते हैं, औलाद नहीं होती थी। वह नंगे पैर दिल्ली से पैदल चलकर गया था वहाँ। फिर कहीं जाकर उसके बेटा हुआ था। अकबर ने उसका नाम सलीम ही रख दिया था जो बड़ा होकर जहाँगीर बना था। मैं भी मज़ार पर चादर चढ़ा आया हूँ।“
“चिंता न कर, रब तुझे भी सब कुछ देगा। भरोसा रखना चाहिए। तूने कौन सा रब का कुछ बिगाड़ा है। सोहणी बहू भी मिल जाएगी और बेटा भी हो जाएगा, तसल्ली रख।“
नानी ने मुझे छेड़ा तो मेरी निगाह एकाएक जीती पर चली गई, ‘सच, जीती मेरी हो जाएगी ?’ मेरे दिल की आवाज़ साँस बनकर बाहर निकली थी।
“नास्तिक ! बाणी पढ़ा कर। दशम पातशाह का फरमान है कि सिक्ख ने महाराज की बीड़ के अलावा किसी दूसरे को नहीं मानना। आज्ञा भई अकाल की, तभी चलाओ पंथ। सब सिखण को हुकम है, गुरु मानियो ग्रंथ। गुरू वाला बन, सिक्खी में रह। फिर देखना कैसे पूरी होती है हर इच्छा।“
नानी ने ज्ञानी ज्ञान सिंह के पंथ-प्रकाश में से अरदास का अंग बन चुका दोहा सुनाकर मुझे प्रभावित करना चाहा था। वैसे यह कौन सी बात थी ? जीती जैसी हसीना के संग के लिए मैं तो साधू भी हो जाऊँ। चिल्ला काटने के लिए भी तैयार हूँ।
मैं शुरू से अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में पढ़ा हूँ। इसलिए पंजाबी नहीं जानता। इस वजह से नानी ने थोड़ी रियायत की थी, “पढ़ नहीं पाता तो पाठ सुन लिया कर। अमृत समय गुरुद्वारे जाकर।“
“सुना करते हैं बेबे। सवेरे शाम घर में मम्मी ने पाठ वाली कैसेट लगाई होती है।“
“जानती हूँ मैं जो टेपें लगाकर गुरबाणी तुम सुना करते हो। तेरी माँ तब तड़के ही कीर्तन सोहिला ठोकी फिरती थी।“
मैं चुप लगा गया था। दरअसल घटना इस प्रकार हुई थी कि नानी एक दिन हमारे पास रात में ठहरी थी। बातों बातों में मम्मी रात को रहिरास साहिब की टेप लगानी भूल गई। आदत के अनुसार सवेरे उठकर मम्मी ने पाठ वाली वही टेप लगा दी थी। मम्मी सुबह-शाम पाठ वाली जो टेप लगाया करते हैं उसके एक तरफ जपुजी साहिब भरा हुआ है और दूसरी तरफ रहिरास साहिब और कीर्तन सोहिला। मुझे तो अधिक कुछ समझ नहीं आता कि कौन सा जपुजी साहिब है, कौन सा रहिरास साहिब। टेप ज़रूर लगा ली जाती है पर पाठ सुनता सुनाता कोई नहीं। हाँ चमकीले(एक पंजाबी गायक) के गाने हों तो मेरे जैसा सुने भी। उस टेप से रहिरास साहब का पाठ खत्म होकर जब कीर्तन सोहिला चल पड़ा था तो नानी ने उठकर बताया था, “यह तो कीर्तन सोहिला है। रात को सोते समय सुना करते हैं। अमृत समय तो जपुजी साहब लगाया करो।“ उस दिन वाली यह बात नानी ने दुबारा याद करा दी थी।
“भरतपुर में बर्ड सेंच्युरी देखने गया था ?“
पहली बार खुलकर, आँखों में आँखें डालकर जीती मेरे साथ हमकलाम हुई थी। उसके द्वारा इतना पूछने पर मुझे यकीन हो गया था कि वह गाँव की लड़कियों की तरह सीधीसादी नहीं है, बल्कि चेतन दिमाग की मालिक है।
आदमी देह का मजबूत और ज़बान का नरम हो तो औरत खुद ही उसके वश में हो जाती है। मैं जितनी विनम्रता इस्तेमाल कर सकता था, उतनी विनम्रता के साथ मैंने उŸार दिया था, “हाँ, गया था। साँप वगैरह वहाँ खुले ही घूमते फिरते हैं। बस जंगल ही है निरा।“
“राजू, सायबेरियन क्रेन थे वहाँ ?“ उसने एक और सवाल किया।
“बहुत।“
जीती ने मुझे नाम लेकर बुलाया था तो मेरी खुशी की कोई इंतहा नहीं रही थी। उसके मुँह से निकला मेरा नाम मुझे दुनिया का सबसे हसीन शब्द लगा था। ‘राजू’ कितने प्यार में गूंथकर उसने पुकारा था। ऐसा प्रतीत हुआ था जैसे उसके मुख से असंख्य पुष्पों की वर्षा हुई हो, जैसे किसी फूलों-कलियों से लदे वृक्ष को पूरे ज़ोर से झकझोर दिया गया हो।
मैं जीती द्वारा बातचीत का खोला गया राह बन्द नहीं होने देना चाहता था, “सायबेरियन क्रेन के बारे में कैसे जानती है तू ?“
“अखबार में लेख पढ़ा था उनके बारे में।“
“अरे कौन सी कम्बैनों की बातें करते हो, मुझे भी तो कुछ बताओ।“ नानी को शायद उकताहट हो रही थी।
“कैबेने नहीं, बेबे क्रेन। सायबेरियन देश के ये पंछी हज़ारों मील का सफ़र तय करके उड़ते हुए हर साल भारत में चोगा चुगने आते हैं। इनके देश में बर्फ़ ज्यादा पड़ने के कारण जाड़े के दिनों में ये यहाँ रहते हैं और फिर मौसम बदलने पर वापस अपने वतन लौट जाते हैं।“
“हाँ, आदमियांे से तो ये परिन्दे ही सयाने हैं। दाना फक्की चुगकर अपने घरों को लौट जाते हैं। ये भी जानते हैं कि जो सुख छज्जू के चौबारे में वो न बलख न बुखारे में। आदमी तो परदेश गया वहीं का होकर रह जाता है। कभी पीछे नहीं लौटता। जो अपने देश की मिट्टी में खाक न हो, कहते हैं उसकी रूह भी भटकती रहती है।“ नानी उदास हो गई थी।
नानी का इशारा किधर था, मैं भलीभाँति समझ गया था। मेरे दोनों मामा एकबार विदेश क्या गए, नानी को ही भूल बैठे। मैंने डॉ. विल्मार की बनाई विश्व प्रसिद्ध दवाई सिनेराइया की चार शीशियाँ निकालकर नानी को पकड़ाते हुए डॉक्टर की चेतावनी सुनाकर सावधान किया था, “बेबे, वैसे डॉक्टर कहता था, आँखें चैक करनी पड़ेंगी। मोतिया न उतरा हो। पर तू ये दवाई डालकर देख ले, शायद आराम आ जाए।“
“चल, मैंने कौन सा अब कसीदा काढ़ना है। बस, घर में चलने-फिरने लायक रहूँ। अपने क्रियाकलाप आप कर सकूँ, यही बहुत है।“
“दवाई डालने पर आँखें लाल हों, जलन हो, जाले से आँखों के आगे आएँ या ज्यादा पानी निकले तो बन्द कर देना। डालना नहीं।“
मैं नानी को दवा के बुरे प्रभाव के बारे में बताकर हटा ही था कि जीती ने एक शीशी उठाई थी और हिदायतें पढ़ते हुए बोली थी, “जर्मन की बनी हुई है। डालने पर थोड़ा-बहुत पानी तो निकलेगा ही। ये देखो, इस पर लिखा हुआ है कि डालने के बाद थोड़ी देर धुंधला भी दिखेगा।“
जीती ने नानी के आगे मुझे झूठा साबित कर दिया था। उसके इतना भर पढ़ने से ही अनुमान लगाया जा सकता था कि वह पढ़ने-लिखने में होशियार होगी। क्योंकि दवाई की डिब्बी पर लिखे निर्देशों में साधारण अंग्रेजी शब्दों की बजाय विशेष शब्दों का प्रयोग किया गया था। जिन्हें पढ़ने में मुझे भी दिक्कत पेश आती थी। इसलिए मैंने दवा विक्रेता के कहे हुए शब्द ही दोहरा दिए थे।
नानी एक शीशी को उठाकर उलटा-सीधा करते हुए उस पर लिखी कीमत खोजने लगी थी, “पता नहीं लगता कुछ। अंग्रेजी में लिखा होगा। इन चंदरों को समझ नहीं आती कि दो अक्खर देसी भी डाल दें। तू खुद ही बता कितने की है।“
“कोई बात नहीं बेबे, तू पैसों की फिक्र न किया कर।“
“न भाई, सयाने कहते हैं, हिसाब तो माँ-बेटी का भी होता है। मैंने कौन सा पैसे छाती पर रखकर ले जाने हैं। पता नहीं कितने दिन जीना है। मैं नहीं चाहती, पैसों के पीछे मेरे साथ कोई मुँह टेढ़ा करे। तू कौन सा कमाता है अभी।“
“दो चार करोड़ जो देने हैं, दे दे बेबे।“ मैंने भोला सा मुँह बनाकर कहा।
“ले तो, मेरे पास कौन सा मोरनी ब्याई है ? जितने लगे हैं, ले ले। माया में खेलते तुम लोगों को भी पैसों की भूख है। पुलिसियों को तो दिन रात अंधी कमाई होती है। तुम्हारे पैसे तो आग लगाये खत्म नहीं होने वाले।“ नानी ने मीठी-सी झिड़की दी थी।
“क्यों बेबेे ? दूसरों की थाली में लड्डू कुछ ज्यादा ही बड़ा लगा करता है। अब तो हालात सुधर गए। अब पुलिस वालों को आमदनी कहाँ ? वे वक्त लद गए जब लड़के का नाम आतंकवाद के केस से निकलवाने के लिए लोग नोटों की बोरी भरकर घर में दे जाया करते थे। अब तो कोई हेराफेरी करके देखे तो सही। सी.बी.आई और विजिलेंस वाले झट तफ़तीश वाली फाइल खोलकर बैठ जाते हैं। ऊपर से ह्यूमन राइट्स वाले अलग अपना ज़ोर लगाने लग पड़े हैं।“ डैडी ने मेरे जेब खर्च में कटौती करते हुए जो बहाना मारा था, वही भाषण मैंने नानी को सुना दिया था।
“तुम्हारा ही है सब कुछ।“ नानी ने सुनार की सौ चोटों के बराबर लुहार वाली एक चोट मार दी थी। 
मैं बैग में से पीपी निकालकर उसके ऊपर से अखबार उतार ही रहा था कि जीती ताली बजाकर हँसती हुई बोली थी, “इस पीपी को क्या ठंड लगती थी कि अख़बार पर अख़बार चढ़ा रखा है ?“
जीती के दूधिया दाँतों में से झरती हँसी देखकर मुझे कोई जवाब नहीं सूझा था। हँसती हुई वह बहुत प्यारी लगती थी। आमतौर पर ठहाके के समय लोगों के ऊपरी दाँत ही नज़र आते हैं, पर जीती जब मुस्कराती थी तो उसकी नीचे वाली दँतपंक्ति भी दिखती थी। हँसते समय वह खूब जंचती थी। ऐसा लगता था मानो हँसी सिर्फ़ उसके हँसने के लिए ही बनी हो।
“पीपी का जंगाल(जंग) लगकर कपड़े न खराब हो जाएँ, इसलिए अखबार लपेटा होगा। और फिर इन पढ़ाकुओं की शान में फकऱ् पड़ता है, हाथ में पीपी उठाने से। तभी झोले में डालकर लाया है।“ मेरी तरफ से नानी ने ही दलील दे दी थी।
अवसर पाकर जीती ने मुझे उलाहना मारा था, “नानी को तो खुश कर दिया, मेरे लिए क्या लाया है ?“
“ये पीपी।“ मैंने भी उससे दिललगी की।
“मुझे सिर में मारनी है।“ जीती ने नखरा दिखाते हुए कहा।
“अगर मारनी है तो मार सकती है। नहीं तो हुक्म करो, क्या चाहिए ? वही दे देंगे।“ मुझे जीती के साथ बात बनती नज़र आई।
“क्यों ? तेरे पास अलादीन का चिराग है कि जो चीज़ मांगू, वही दे देगा।“ जीती ने अपनी तेज़-तर्रारी साबित की।
“मेरी तो कब्र में टांगें हैं। दो दिन की मेहमान हूँ। मैंने कौन सा इस्तेमाल करना है इन्हें। ट्रंक में पड़ी को टिड्डियाँ ही खाएँगी। ले, तू ही ले जा।“ नानी ने कोटी और शॉल जीती के आगे रख दिए।
“नहीं बेजी, मैंने तो यूँ ही कहा था। राजू का जिगरा देखती थी।“ जीती मुझ पर मेहरबान हुई मुस्कानों के फॉयर करती कह रही थी।
मैं भी जवाबी हमला चूकना नहीं चाहता था, “जिगरा तो पहाड़ जितना है, भ्रम में न रहना।“
मैंने बैग में से अपना ट्रैक सूट निकालने के बाद बैग को झाड़ा था और दुहरा करके खाट पर रख दिया था। 
“अरे ! तेरे लीड़े कहाँ हैं ? कहीं राह में तो नहीं फेंक आया ?“ नानी फिक्रमंद होकर बोली थी।
“नहीं बेबे ! लीड़े-लŸो क्या करने थे ? मुझे सवेरे लौट ही जाना है। बस, दवाई पकड़ाने आया था। आने का वक्त ही नहीं मिला, यूँ ही टालमटोल होती रही। कब भी लाकर रखी पड़ी थीं। मैंने सोचा, कहीं मियाद ही न खत्म हो जाए।“
“न राजू, सवेरे तो मैं नहीं जाने दूँगी। पहली बार तो आया है। महीना दो महीना रह। रौशनी का मेला देखकर आराम से ही जाना।“ 
“नहीं बेबे, पीछे मेरे बिना गुज़ारा नहीं। मैं तो आज के दिन ही बड़ी मुश्किल से वक्त निकालकर आया हूँ।“
“न भाई, गुस्सा हो या राजी हो। कल वीरवार को मैं दोहते को नहीं भेजने वाली।“
“ज्यादा वहम-विचार नहीं किया करते बेबे। सारे दिन एक जैसे ही होते हैं। अमृत छक के भी तूने वहम-भरम नहीं छोड़े।“
“मुझे अक्ल न दे। क्या हुआ जो चार अक्खर पढ़ गया है। मेरे से सयाना नहीं तू। तेरी माँ की भी माँ हूँ मैं। चारों तरफ दिल्ली-दक्खन तो कूकरों की तरह घूमता फिरता है, पर नानी के घर तुझसे आकर रहा नहीं जाता। बैठा रह आराम से।“ नानी का उलाहना वाजि़ब था।
“कहाँ बेबे ? फाइनल पेपर सिर पर आए पड़े हैं, मेरी पढ़ाई का नुकसान होता है। बोर्ड के पेपर है इसबार।“
इम्तिहान के बहाने ने नानी को बर्फ़ में लगा दिया था।
“अच्छा ! मैं तो कहती थी, यहाँ मेरे पास रहता। मुझे भी कुछ सुख होता। यहाँ दूध-घी खालिस और खुला है। शहरों में तो दूधिये पानी मिलाकर दे जाते हैं। तेरे लिए पंजीरी और बना देती।“
“न-न, पंजीरी-वंजीरी की बेबे तू तकलीफ़ न कर।“ पंजीरी का नाम सुनते ही मैं बोल उठा था। मुझे पिछली बार हुए पंजीरी के हश्र की याद हो आई थी। पिछली बार जो पंजीरी नानी देकर गई थी, किसी ने मुँह नहीं लगाई थी। हममें से कोई भी पंजीरी का शौकीन नहीं था। पीपी की पीपी पंजीरी यूँ ही बर्बाद होती रही थी। फफूंदी लगने पर कुŸाों को डाली थी, पर उन्होंने ने भी उसे मुँह नहीं लगाया।
नानी ने खूब लालच दिए थे। पर मैं कहाँ काबू में आने वाला था। जीती ने पेठा रसोई में, कपड़े कमरे में और दवाई अल्मारी में यानी सारी चीज़ों को उनकी उपयुक्त जगहों पर संभालकर रख दिया था और अपने कामधंधे जा लगी थी। मेरा हरामी मन ख़यालों के जाल बुनने लगा था। मैं नानी को उसके पास न रुकने की मजबूरी बताकर जवाब तो दे चुका था, पर जीती को देखकर मेरा मन मचलता था। मन करता था कि मैं दो-चार दिन नानी के पास रहूँ। यहाँ रहे बगै़र जीती के साथ बात भी नहीं बन सकती थी। साढ़े पाँच फुटी साँपिन को कीलने के लिए समय तो लगना ही था। कोई चुटकी मारने वाला काम तो था नहीं। ख्यालों के गोले अटेरते हुए मैंने मन बदलने के लिए दलील पैदा की थी। हफ्ता, दो हफ्ता चंडीगढ़ न भी लौटूँ तो कौन सी आफत आ जाएगी। पढ़ाई में पिछड़ने के सिवा तो और कोई नुकसान नहीं। वैसे तो डैडी की सिफारिश से ही पास हो जाएँगे। नहीं तो अधिक से अधिक, एक साल ही मारा जाएगा। पेपर ही हैं, इस साल न सही, अगले साल दे लेंगे। कौन सा कुंभ का मेला है जो बारह साल बाद आएगा। यह माल तो न हाथ से जाए !
पर अब यदि मैं रुकने के बारे में कहता तो नानी ने मुझ जबरन यह कहकर भेज देना था, “पढ़ेगा तेरा बाप। न भाई, तू जा। स्कूल से नागा करके मुझे उलाहना न दिलाना।“ मैं तो अपने पांव में आप ही कुल्हाड़ी मार बैठा था। कुछ नहीं हो सकता था।
मैं चोरी छिपे एक पल जीती को देख लेता था। वह भी बार बार मेरी ओर देखती थी। जब कभी हमारी निगाहें साझी होतीं तो वह लज्जा जाती। मैं भी मंद मंद मुस्कराने लगता था। मेरी नज़रें झुकीं कि रसोई का दरवाज़ा बंद हो गया। दरवाज़े में से अंदर वाले को बाहर का साफ़ दिखता था। पर बाहर से जाली पर रंग किया होने के कारण कुछ भी दिखाई न देता था। दरवाज़ा खुद ब खुद बंद हो गया था या जीती ने भेड़ दिया था, मैं नहीं जानता। पर मेरा दिल कहता था, हवा से बंद हुआ होगा। जीती इतनी संगदिल और बेमुरव्वत तो नहीं हो सकती।
दिल तो चाहता था कि खुद जाकर दरवाज़ा खोल दूँ। पर नानी सिर पर बैठी थी। मैंने नानी को शांत देखकर बात शुरू की, “और बता नानी, मामों का फोन आता है ?“
“न बेटा, राम राम कह। उन नालायकों ने तो कभी चिट्ठी भी नहीं डाली, तू फोन की बात करता है। मुझ बूढ़ी से अब उन्होंने क्या लेना है ? हाथ कटवाये बैठी हूँ, राजी-बाजी रहें, मौज मनायें। आदमी के सिर पर राज था। सिर के साईं के बाद तो कैसा जीना ! ठोकरे ही खानी हैं।“
नानी की आँखें भर आई थीं। उसने ऐनक ऊपर उठाकर चुन्नी के पल्लू से आँखों की कोरें पौंछीं। मुझमें नानी के दर्द को और कुरेदने का साहस नहीं हुआ। नानी का ध्यान बँटाने के मंतव्य से मैंने बात बदली, “सुना फिर बेबे, तेरे जोड़ों के दर्द में कोई आराम आया कि नहीं ?“
“न, वैसे का वैसा ही है। अब क्या आराम आना है। बल्कि ठंड के कारण तो रोग और ज्यादा बढ़ गया है।“
“मैं तो कहता हूँ, कल मेरे साथ ही चल। वहाँ पी.जी.आई में हड्डियों का माहिर डॉक्टर है, चावला। उससे तेरा इलाज करवा देते हैं। और फिर तेरी सेवा करेंगे।“
“तू खुद तो मेरे पास रहता नहीं, मैं क्यों रहूँ फिर तुम्हारे पास ? मेरे घर में कमी है किसी चीज़ की ? लोग कहेंगे, बेटी के टुकड़ों पर बैठी है बुढि़या।“
“कोई कुछ नहीं कहता तुझे बेबे।“
“ना छोटे, फरीद की बाणी कहती है -बारि पराये बैसणा, साईं मुझे न देहि, जे तू ऐवें रखसीं, जीओ सरीरहु लेहि।“
कुछ पल ठहरकर नानी ने मेरा ध्यान वॉशिंग मशीन की ओर दिलाया था जो कई दिनों से खराब पड़ी थी। मैंने मशीन चलाकर देखी तो उसमें करंट नहीं आ रहा था। मैंने प्लग खोलकर देखा। लाइव तार पिन पर से टूटी हुई थी। मैंने उसे जोड़ दिया और मशीन चलाकर देखी, वह चल पड़़ी। मशीन चलने की आवाज़ सुनकर जीती गदगद हो गई, “वाह ! राजू तू तो जीनियस है !“
जीती के इस वाक्य से यूँ संगीत झरा था मानो सितार की तारों को किसी ने छेड़ दिया हो। जीती की ओर से मिले ‘जीनियस’ के खिताब से मुझे उतनी ही खुशी हुई जितनी किसी बंदे को अपने नाम के साथ ‘सर’, ‘युअर एक्सलेंसी’ या ‘हिज हाईनेस’ जैसा खिताब जुड़ने से होती है। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं हवा में उड़ रहा होऊँ।
दोपहर ढलकर शाम हो गई थी। धूप को छुट्टी देकर छांव पहरे पर आ बैठी थी। चाय का समय था। नानी का अमल टूट रहा था। सानी करने के बाद जीती ने जब पतीला खड़काया तो नानी को पता चला गया कि वह चाय का पानी रखने लगी थी। 
“जीती, चाय तो ये पीता नहीं। कहता है, रंग काला होता है इससे। मेरी और अपनी बनाकर इसके लिए दूध कोसा कर देना।“
जीती नानी को चाय पकड़ाकर मेरे लिए दूध लेने चली गई। मेरे दिमाग में यह योजना करवटें बदलने लगी थी कि जब जीती मुझे दूध का गिलास पकड़ाएगी तो मैं गिलास पकड़ने के बहाने उसका हाथ पकड़ लूँगा।
पर व्यक्ति जो सोचता है, यदि वैसा ही होने लग पड़े तो रब को कौन याद करेगा ? मेरा दिल टूट गया था जब जीती दूध, पेठा, बिस्कुट और खोये की पिन्नियाँ छोटी छोटी प्लेटों में डालकर एक बड़ी ट्रे में रखकर ले आई। अब मैं बनी बनाई ट्रे तो उसके हाथ से पकड़ नहीं सकता था। मेरा मन करता था, ट्रे मेज़ पर से उठाकर आँगन में दे मारूँ। होश से काम लेते हुए मैंने नई चाल चलते हुए दूध से पहले पीने के लिए पानी मांगा। जीती इतनी डफर भी नहीं कि एक गिलास पानी भी परात जितनी ट्रे में रखकर लाती। 
सच कहा है, किसी शायर ने - ‘लाख तदबीरें करें इंसा तो क्या होता है। वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है।’ उसी तरह जीती ने मुझे पता भी न चलने दिया कि किस वक्त वह पानी का गिलास मेज़ पर रख गई थी। मेरी सारी योजना धरी की धरी रह गई थी। खै़र, बैटर लक, नेक्सट टाइम’ कहकर मैंने स्वयं को तसल्ली दी थी।
काफ़ी देर तक हम नानी-दोहता दुख-सुख साझा करते रहे थे। इस बीच, जीती ने भैंस दुहकर दूध निकाला और कच्चे दूध को उबाला देकर ठंडा होने के लिए रख दिया था और अपने घर दूध देने चली गई थी। नानी ने मुझे बताया था कि भैंस दस किलो दूध देती थी। अकेली नानी और जीती के लिए दस किलो दूध बहुत ज्यादा था। इसलिए फालतू दूध जीती अपने घर दे आती थी। जाते समय सारे घर की रौनक भी संग ही लेती गई वो। मुझे उसके बिना घर सूना सूना लगता था। कुछ देर और मैं नानी के साथ इधर-उधर की बातें करता रहा। बाहर ठंड हो चली थी। नानी उठकर पूजा-अर्चना करने चली गई थी और मैं उठकर घर देखने लग पड़ा था।
जीने के पास ही एक छोटा-सा दरवाज़ा था जो कि घर के दूसरे पोर्शन की ओर खुलता था। दरअसल यह साथ वाला घर नाना ने सस्ता बिकता देखकर पशुओं के लिए खरीद लिया था। मैं उधर चला गया। सारे सूने घर में उल्लू बोलते थे। इस मकान के आँगन का कुछ हिस्सा कच्चा और बाकी साधारण ईंटों से पक्का किया हुआ था। इसमें दो कमरे डालकर सामने ट्रैक्टर खड़ा करने के लिए खुला बरामदा बना रखा था। बरामदे में से आगे चलकर मैं पहले दायें कमरे में गया। कमरे में अँधेरा था। मैंने टटोलकर स्विच दबाया। कमरा रौशनी से भर गया। फर्श पक्का, छत पर लेंटर और नांद भी सीमेंट की बनी हुई थी। पशुओं की संगली की रगड़ से नांद का किनारा न टूटे इसलिए लोहे के आड़ लगा रखी थी। नांद के एक तरफ फर्श ऊँचा और दूसरी तरफ नीचा था। दूसरी तरफ दीवार के साथ पशुओं के मल-मूत्र की निकासी के लिए सीमेंट की पक्की टीप की हुई नाली बनी थी जो बाहर सीवरेज में गिरती थी। पशु बांधने के लिए लोहे के कुंडे नांद में मजबूती से जुड़े हुए थे। मैंने गिने, पूरे बीस थे। किसी समय यह सारी नांद भरी होती होगी। ईश्वर का रंग देखो कि उस समय वहाँ सिर्फ़ अभी हाल ही में ब्याई एक भैंस थी और उसका कटड़ा था। मुँह चलाती भैंस मुझे देखकर रुक गई थी और यूँ डरकर देखने लगी थी जैसे मैं कोई कसाई होऊँ। मुझे कटड़ा बहुत प्यारा लगा। मैं प्यार से उसके नरम नरम बदन पर हाथ फेरकर उसे सहलाने लगा था कि उत्पात मचाती भैंस खूँटा तोड़ने की कोशिश करने लगी थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अच्छी भली भैंस को ये अचानक क्या हो गया था। मैंने ग़ौर से देखा। भैंस के चेहरे पर भय की परतें जमी हुई थीं। उसकी सजल आँखें मुझसे रहम की भीख मांग रही थीं। मुझे उस पर दया आई और साथ ही सारी बात समझ में आ गई। मैंने फौरन अपने हाथ कटड़े पर से हटा लिए। अब वह शांत हो गई थी। भैंस ने मुझे कसाई जानकर यह समझा था कि मैं उसके लख्ते-जिगर को उससे जुदा करने के लिए आया हूँ। जानवरों में भी कितनी बुद्धि होती है। कौन कहता है कि ईश्वर ने दिमाग सिर्फ़ मनुष्य को ही दिया है। पर शायद इस घटना का वास्ता दिमाग से उतना नहीं जितना दिल से था। 
फिर मैं साथ वाले कमरे में गया। वहाँ सिर्फ़ गेहूं वाला कुठला और तेलवाला पुराना ड्रम पड़ा था। एक तरफ कोने में भूसा भी। उस कमरे की खिड़की पीछे की ओर खुलती थी। मैंने उसे खोलकर बाहर झांकाा। कमरे के पीछे गोबर गैस प्लांट लगा हुआ था। मैंने वहाँ खड़े खड़े ही अंदाज़ा लगा लिया था कि डंगर न होने के कारण प्लांट बंद पड़ा था। और फिर गोबर गैस की नानी को अब ज़रूरत भी नहीं रही। क्योंकि कुकिंग गैस एजेंसी वाले गुप्ता की डैडी ने ड्यूटी लगा रखी है। वह खुद ही हर महीने सिलेंडर खत्म होने से पहले ही लुधियाना से दूसरा सिलेंडर पहुँचा देता है।
एकाएक गुटर-गूं की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी। मैंने आवाज़ की दिशा में नज़रें दौड़ाईं तो देखा, रोशनदान में सफ़ेद कबूतरों ने घोंसला बना रखा था। मैंने सोचा, नानी इधर नहीं आती होगी, नहीं तो वह कबूतरों को कब का उड़ा देती। उसने कहना था, कबूतरों का घर में बोलना बुरा होता है। घर उजड़ जाते हैं। या शायद नानी को कबूतरों के इस आशियाने का पता होगा और उसने जानबूझकर नज़रअंदाज कर दिया होगा। इस घर की गिनती अब बसते घरों में भी तो नहीं होती। उजड़ा तो पड़ा है। इससे ज्यादा उजाड़ा और क्या हो सकता है ? यूँ तो इस घर में ऐश-ओ-इशरत की हर चीज़ है। किसी चीज़ की कमी नहीं है। दाता ने सब कुछ दिया है। यदि कुछ नहीं दिया तो सुख नहीं है, सुकून नहीं है और सबसे बड़ी चीज़ कोई बंदा नहीं है। इंसानों की कमी अवश्य चुभती है। सारा घर भांय-भांय कर रहा था। अकेली नानी के साथ यह मकान घर तो नहीं बनने वाला। मुझे इस अपंग घर की यह दशा देखकर रोना आ गया। वहाँ न पाजेब की छनकार, न सुर्ख चूड़े की टनकार, न ‘शालू वाली’ के साथ ‘चीरे वाले’ की नांेक-झोंक, न देवर-भाभियों के हँसी-मजाक, न तोतली ज़बानें, न किलकारियाँ, न पैरीपैना, न सुहागिन रहो की दुआएँ, कुछ भी तो नहीं था। कितना कुछ मनफ़ी है यहाँ। मेरा मन भी इस श्मसान जैसे घर में से कहीं दूर भागने को करता था। यह बेरौनक घर, घर कम और भूतों का डेरा अधिक लगता था। पारिवारिक उलझनों के बारे में सोचता हुआ मैं उदास होकर बाहर निकल आया।
उधर से मुड़कर रिहायशी मकान की करीब आधी सीढि़याँ ही चढ़ा था कि मुझे चौबारे में लटकते ताले दिख गए। आगे बढ़ने को मेरा मन नहीं किया था। मैं वापस आया तो देखा नानी खड़ी अरदास कर रही थी। टहलता टहलता मैं रसोई में चला गया। जैसे चंदन के वृक्ष के पास उगे साधारण बेल-बूटे भी महकने लग जाते हैं, ठीक वैसे ही, जीती के न होने पर भी रसोई में से जीती के जिस्म की महक आ रही थी। मेरा तन-मन खिल उठा था। मेरा जे़हन भावुकता के पिंजरे में से निकलकर जीती के ख़याल वाले अम्बर में बुलंद उड़ानें भरने लग पड़ा था। आधा घंटा हो गया था जीती को अपने घर गए। मुझे उसे लेकर फिक्र होने लगी।
मैं रसोई में चला गया। बंद दरवाज़े में से बाहर से अंदर कुछ न दिखाई देने वाले रोड़े को दूर करने जुगत लगाने लग पड़ा। मेरा मन करता था कि चौखट समेत दरवाज़ा ही उखाड़कर रख दूँ। न रहेगा बांस, न बजेगी बाँसुरी। 
मैं दोपहर वाला संकट दूर करना चाहता था। पर दिमाग काम नहीं कर रहा था। कोई हल न निकलने पर मैं मायूस-सा होकर रसोई से बाहर निकला तो मेरी नज़र बरामदे में खड़ी नानी पर जा पड़ी थी। बरामदे में ट्यूब की रौशनी में वह मुझे जाली में भी दिख रही थी। मेरे दिल ने खुश होकर कलाबाजियाँ मारी थीं। यानी लाइट में तो जाली पार जीती भी दिखाई देगी !
मैं फिर रसोई में लौट गया। जीती का हाथ बंटाने के इरादे से उबालकर ठंडा होने के लिए रखे दूध का पतीला मैंने उठाकर फ्रिज में रख दिया था। सब्जियों से भरे फ्रिज में जगह ही नहीं थी। शायद नानी पूरे हफ्ते की तरकारी एक बार ही लेकर रख लेती थी। मेरे करने योग्य कोई काम नहीं था जिसे पूरा करके मैं जीती का मददगार बन सकता। पर मेरा दिल कहता था, कोई न कोई काम तो होगा ही। जि़न्दगी में दुख और घरों में काम भी कभी खत्म हुए हैं ? अभी मैं कुछ सोच ही रहा था कि बाहर ऐसा शोर होने लगा था जैसे धोबीघाट पर धोबी पत्थरों पर कूट कूटकर कपड़े धोया करते हैं। मैं दरवाजे़ को धकेल तीर की भाँति बाहर आँगन में आ गया। टंकी में पानी ओवर फ्लो होने से तेज़ धार में नीचे गिर रहा था। जीती जाते समय टंकी भरने के लिए मोटर चला गई थी। मैंने नानी के कहने से पहले ही दौड़कर मोटर का स्विच ऑफ कर दिया था और फिर बरामदे में चला गया था। नानी अरदास खत्म करके गुटका रूमाल में लपेट रही थी।
सुबह से पगड़ी बांधे होने के कारण अब मेरे कान दुखने लगे थे। जैसे सिर पर रखा घड़ा या टोकरा गिरने से बचाने के लिए पकड़ रखा होता है, वैसे ही दोनों हाथ पगड़ी को लगाते हुए मैंने नानी से कहा था, “ला फिर बेबे, दे कोई दुपट्टा-साफा बांधने के लिए।“
“देती हँू। ये बैठक का दरवाज़ा खोलकर टेलीविजन लगाना है तो लगा ले।“
अँधेरा हो चला था। नानी ने बरामदे के बल्ब का स्विच दबाकर सब तरफ प्रकाश बिखेर दिया था। मैंने बैठक में जाकर ट्यूब जगाई थी। दरवाजे़ में घुसते ही बायें हाथ मेज़ और कुर्सियाँ रखी हुई थीं। कमरे के एक कोने में टी.वी. और वी.सी.आर. पड़े थे। दूसरी तरफ दीवार के साथ डबल बैड बिछा था जिसके सिरहाने की तरफ दीवार में शो-केस बना हुआ था। उसमें कुछ सजावट की वस्तुओं के अलावा घर के सदस्यों की तस्वीरें भी रखी हुई थीं। मेरी तस्वीर सबसे साफ़ थी। मेरे मन में ख़याल आया - जीती, मन लगाकर साफ़ करती होगी। 
खाट पर से ट्रैक सूट उठाकर मैंने पहन लिया था। नानी ने डब्बीदार परना दे दिया। मैं शीशे के सामने हुआ तो मेरा चिŸा पगड़ी उतारने को नहीं हुआ। संयोग से सुबह बंधी भी बहुत सुंदर थी। पर उतारनी तो थी ही। पगड़ी उतारकर मैंने अंगीठी पर रखी तो मेरे सिर पर एक की बजाय जानवरों के सींगों की तरह दो जूड़े देकखर नानी बोली थी, “ये क्या लड़कियों की तरह लड्डू से बना रखे हैं ?“
“बेबे, पगड़ी को बढि़या शेप देने के लिए दो जूड़े किए हैं। रिवाज है ऐसे पगड़ी बांधने का। आजकल सारे लड़के ऐसे ही जूड़े करके पगड़ी बांधते हैं।“
“नई नई उलटी-सीधी तरकीबें किए जाते हैं। तेरा नाना तो एक बार मावे वाली पगड़ी बांध लेता था तो कई कई दिन खोलता नहीं था। टोपी की तरह वैसी की वैसी उठाकर सिर पर रख लेता था। तुम तो रोज रोज खोलकर नए सिरे से बांधते हो।“
परने की पूनी करने के लिए तहें मार मारकर मैंने दो इंच चौड़ी पट्टी बना ली। खिड़की में लगे शीशे के सामने खड़े होकर पहले तो सीधी मलवई स्टाइल की बांधने लगा था, फिर सोचा था, इस स्टाइल में तो जीती ने पगड़ी बंधी देख ही ली है। बढि़या पगड़ी बांधने का लोहा तो वह मान ही गई होगी। क्यों न इसबार परना भी नए तरीके से बांधकर दिखाऊँ।
अब मुझे साफ़ सुथरा बिस्तर भी सलवटों के लिए आतुर प्रतीत होता था। टी.वी. देखने को क्या मन करता ? बैड पर लेटते ही सतरंगी सपनों की घोड़ी पर सवार हो गया था। रात में नानी से पेशाब जाने का बहाना मारकर जीती मेरे पास आ जाएगी। जाड़े की इस लंबी और ठंडी रात में हम जिस्मानी सेक के साथ एक दूसरे को गरम किए रखेंगे। रातभर हम गुस्ताखियाँ करते रहेंगे और तड़के दिन चढ़ने से पहले जीती अपने कपड़े पहनकर नानी के पास वाली चारपाई पर जाकर लेट जाएगी। हकीकत में ऐसा होने पर तो हर किसी को मज़ा आता है, पर मुझे तो कल्पना करके ही बहुत आनन्द आ रहा था। मैं आनंदित हुआ पड़ा था।
उठकर जीती की ख़बर लेने बाहर आया ही था कि जीती घर में घुस ही रही थी। ट्रैक सूट के अपर की जिप के साथ खेलता, उसे ऊपर-नीचे करता मैं बरामदे के दरवाज़े तक आ गया था। वह आते ही फिर रसोई मंे घुस गई। मेरा मन करता था, उसके पीछे पीछे ही रसोई में चला जाऊँ। 
“ठंड है बाहर, अंदर ही चल।“ नानी बाहर से अंदर आती हुई बोली थी।
नानी जब मुझे धकेल कर अंदर ले आई तो मुझे वह ज़हर सरीखी लगी।
जीती रसोई में से निकलकर आई और बोली, “बेजी, मैं तो जाग लगाने के लिए दूध बाहर रखकर गई थी। आपने उठाकर फ्रिज में रख दिया।“
“मैं तो रसोई में गई ही नहीं।“ नानी ने जीती को अपनी बेगुनाही पेश करके मुझसे प्रश्न किया था, “राजू, कहीं तूने तो दूध नहीं छेड़ा ?“
मेरे भागने को राह नहीं था। मैं सेंध लगाते पकड़े गए चोर की तरह हक्का-बक्का नानी की ओर देखने लगा था। सिर हिलाकर मैंने अपना कसूर स्वीकार किया था, “मैंने सोचा, फ्रिज में रखने के लिए रखा है।“
“चल, कौन सा परलो आ गई। बाहर निकालकर थोड़ी देर पड़ा रहने दे वैसे ही।“ नानी ने फैसला मेरे हक़ में सुना दिया था।
शिकायती बच्चे की तरह चुगली लगाकर जीती वापस लौट गई थी।
“जीती, दूध में मुट्ठीभर चावल डालकर एक कटोरी पका लेना। खीर का तो शौकीन है ये। दो मुट्ठियाँ बादाम तोड़कर गिरियाँ भी डाल देना। किताबों के साथ सारी दिहाड़ी माथा मारता रहता है। इसका दिमाग बढ़े।“
बरामदे में खड़ी नानी ने जीती को आदेश सुनाकर मेरी तरफ ध्यान दिया था, “अगर कहे तो अंडे मंगवाकर भुर्जी बनवा देती हूँ।“
“जो बना है, वो ही छक्क लेंगे। यूँ ही क्यों तकलीफ़ करनी है।“
“तकलीफ़ की क्या बात है ? सयाने कहा करते हैं कि खाओे मन भाता, पहनो जग भाता। जो तेरी रूह करती है, वही खा लेना। मैं कहती हूँ जीती को।“ नानी एक हाथ के साथ किरपान और दूसरे के साथ गातरा ठीक करती हुई रसोई की ओर जाने लगी।
मैं जीती को परेशान करने के हक़ में नहीं था, “ना बेबे, कुछ खास करने की ज़रूरत नहीं। मैंने तो अंडे खाने छोड़ रखे हैं।“ मैंने जानबूझ कर झूठ बोल दिया। मैं जानता था कि इतने से कम में नानी टलने वाली नहीं थी। फुर्जी बनाने के लिए जीती को यूँ ही और खटराग करने पड़ते। 
नानी शांत हो गई थी और मुझे अपने कमरे में खींच ले गई थी। कमरा ठंडा था। नानी ने कोने में पड़ा रूम हीटर चला दिया था। बैठकर हमने कबीलदारी की बातें छेड़ ली थीं। मैं नानी के पास बैठा हुआ भी वहाँ से गै़रहाजि़र था। अचानक मुझे सूझा था कि आई.पी.एस. सुरजन सिंह की बेटी वाला छल्ला अपनी कानी उंगली से उतारकर जीती को दे दूँ। स्वीटी से संबंध विच्छेद हुए को भी खासा अरसा हो गया था। फिर उसका छल्ला पहने रहने का क्या लाभ ?
नहीं, नहीं इसे पुराना क्यों दूँ ? नकली इसने सिर में मारना है ? और फिर, छल्ला तो हर कोई ऐरा-गैरा दे दता है। इसको असली सोने की चेनी गले से उतारकर दे देता हूँ। रसोई में जाकर कहूँ, ‘तू कहती थी न, मैं तेरे लिए कुछ लेकर नहीं आया। ये देख, मैं तेरे लिए सोने की चेन लाया हूँ।’
जीती गदर्न के पीछे से चुटिया उठाकर मेरी ओर पीठ करके कहेगी, ‘लो, खुद ही पहना दो। मेरे गले में अपने प्यार की निशानी।’
फिर जब मैं चेन उसके गले में डालकर कुंडे का मुँह कसकर बंद कर दूँगा तो वह लॉकेट को चूमकर कहेगी, ‘थैंक्यू ! बहुत सुंदर है ये तो !’
‘पर तेरे से ज्यादा नहीं।’ मेरी तरफ से की गई तारीफ़ हमारे दिलों के बीच का फासला और कम कर देगी। सुंदर स्त्रियाँ तो प्रशंसा की भूखी हुआ करती हैं।
‘राजू, मैं मरते दम तक इसे छाती से लगाकर रखूँगी। बता, इसके बदले मैं तुझे क्या दूँ ?’ जीती मेरी हुस्नपरस्ती पर जान निसार करेगी। 
मैं कहूँगा, ‘जिसे तू मिल गई जीती, उसे और क्या चाहिए ? बस, मुझे भी तेरी मुहब्बत के सिवा और किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं।’ और वह मेरे साथ लिपट जाएगी।
इश्क का भूत सवार होने पर तो आशिक खुदा की परवाह नहीं करते। फिर नानी किस खेत की मूली थी। न नानी ने कुछ पूछा और न नानी को कुछ बताया। बस, चुपचाप उठकर चल दिया, जीती की ओर। नानी ने शायद समझा था कि मैं बाथरूम जा रहा था। मैंने अपने अंदर दृढ़ता से निश्चय कर लिया था कि इस बार जीती के साथ पेच लड़ाकर ही सांस लूँगा। इसलिए रास्ते में ही मैं बोले जाने वाले संवादों को तरतीब देने लग पड़ा था। रसोई में घुसते ही जीती पूछेगी, “क्या लेना है राजू ?“
“बूझ ले खुद।“
“मैं कोई ज्यातिषी हूँ ?“
“फकीरों को खै़र, पपीहे को स्वाति बूंद और चकोर को चाँद के अलावा कुछ और नहीं चाहिए होता जीती।“ मैं शायराना अंदाज़ में जवाब दूँगा।
“बुझारतें न डाल। साफ़ साफ़ बता।“
“जो हर आशिक को चाहिए होता है। मुझे भी वो दे दे।“
“क्या जूतियाँ ?“ जीती मुझे चिढ़ाने के लिए कहेगी।
मैं उसके मजाक पर हँसी रोके रखूँगा और संजीदा-सा मुँह बनाकर कहूँगा, “नहीं, इश्क।“
“यू मीन लव ?“ जीती मुझे प्रभावित करने के लिए अंग्रेजी का प्रयोग अवश्य करेगी।
“हाँ, तेरा प्यार जीती, तेरा प्यार।“
“आशिकों को इश्क नहीं, जूतियों का परशाद मिला करता है।“ जीती मुझे और सताएगी।
“तेरे लिए वो भी मंजूर है जीती।“ मैं बातों में उसको जीतने नहीं दूँगा। अव्वल तो वह इतने में ही अपनी शिकस्त स्वीकार करके मेरे कदमों में गिर पड़ेगी। यदि खुदा न खास्ता ऐसा न हो सका तो फिर वह शरमाएगी या गुस्सा करेगी। अगला दांव उसकी प्रतिक्रिया देखकर ही खेला जाएगा। निन्यानबे फीसदी तो उसके द्वारा यह कहने की संभावना है, “बस, इतनी छोटी सी चीज़ मांगने आया था। मांगनी ही थी तो कुछ और मांगता।“
“तू क्या जाने जीती, जिसको तू छोटी चीज़ कह रही है, वह मेरे लिए कितनी बड़ी नियामत है।“
अब और विलम्ब करना उचित नहीं था। कई बार रिहर्सल में लगा अधिक ज़ोर भी परफोर्मेन्स का कचरा कर देता है। ऐसी कल्पनाएँ करता हुआ मैं रसोई में चला गया और अंदर घुसते ही जीती से थोड़ा हटकर खड़ा हो गया। उसने मेरी ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था। मैं अपनी उपस्थिति का ज्ञान करवाने के लिए झूठ-मूठ खांसा भी। पर उसने तो जैसे मैं उसका जेठ होऊँ और वह मेरी छोटी भाभी, मेरी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा। इश्क के मामले में शुरूआत करनी ही कठिन होती है, फिर तो बात अपने आप बनती चली जाती है। उसकी नज़रों में मैं कहाँ खड़ा था। यह लुप्त भेद जाने बग़ैर सीधे डंडा मारने की बजाय मेरे मन में आया, क्यों न कोई गाना गाकर मुहब्बत का इज़हार करूँ। यदि जीती को मेरा प्यार मंजूर न हुआ या उसने बुरा मनाया तो मैं यह कहकर साफ़ बरी हो जाऊँगा कि मैं तो महज़ नगमा ही गुनगुना रहा था। कौन सा गीत गाऊँ ? ‘काटे नहीं कटते, ये दिन ये रात, करनी थी तुम से जो दिल की बात, लो आज मैं कहता हूँ...आय लव यू’। नहीं, यह मिसरा यहाँ फिट नहीं होता। कोई और। हाँ, यह ठीक रहेगा, ‘हमको तुमसे, हो गया है प्यार क्या करें। बोले तो जियें, बोले तो मर जाएँ। ओ...।’
लेकिन जैसे ही मूड बनाकर मैंने खंखारते हुए गला साफ़ करके गाने का प्रयास किया, गले में से बोल ही नहीं निकले। सारी ज़बान को ही लकवा मार गया था। बड़े-बड़े महाबली, योद्धे, सूरवीर, फौज़ों के जरनैल जिन्होंने दर्जनों युद्ध जीते हों, वे भी यहाँ, इस बिन्दु पर आकर मार खाते रहे हैं। बारह बरस पशु चराना, टांगें तोड़नीं, माउंट एवरेस्ट पर चढ़ना, पहाड़ चीरकर नहर निकालनी, सब कुछ बंदे के लिए सरल है। पर किसी को यह कहना कि मैं तुझे प्यार करता हूँ, दुनिया में सबसे कठिन काम है।
जीती खड़ी खड़ी अपने ध्यान में दाल बीन रही थी। मैंने उसके करीब होकर बर्तनों वाली टोकरी में से जग उठाया और एकटक देखने लगा। जब वह फिर भी कुछ नहीं बोली तो मैंने बात शुरू करने के लिए कहा था, “जग है ये ?“
उसने जैसे सुना ही नहीं था या उसने कानों में कड़वा तेल डाला हुआ था। उसकी चुप मुझे अखर रही थी। जग रखकर मैंने गिलास उठा लिया और उसको निरखने लगा।
“अच्छा गिलास है ये ?“ उस गूंगी की ओर से हुंकारा न मिलने पर मैंने अपनी आवाज़ थोड़ा ऊँची की थी, “तो काँच का गिलास है ये।“
उस माँ की धी ने जैसे कसम खाई हुई थी मुँह न खोलने की। उसने मेरा कोई नोटिस नहीं लिया था। मुझे उसकी चश्मपोशी से बहुत खीझ हो रही थी। दो शब्द बोलने से उसकी लिपिस्टिक उतरती थी या जीभ घिसती थी। गुस्से में मैंने गिलास को वापस बर्तनों में दे मारा था। बेशक उसके टूटने से वहाँ काँच बिखर सकता था, पर मुझे इसकी कोई परवाह नहीं थी। मैंने टोकरी में से चमचा उठाया तो वह बोल पड़ी।
“हाँ, यह चमचा ही है। स्टील का चमचा।“
मेरे साथ नज़रें मिलाकर जीती मंद मंद हँसी थी। उसके शब्दों में व्यंग्य की झलक थी। मैं घबरा गया। मेरे लिए एक पल भी वहाँ खड़ा होना दूभर हो गया और बाहर आ गया। मुझे अपने आप पर बड़ी शरम आई। छिछोरेपन में बचकाना हरकत करके मैंन खुद अपनी स्थिति खराब कर ली थी। कुछ देर बाद जब वह बाहर आकर खूँटी पर लटकता पौना (कपड़े का टुकड़ा) लेने आई थी तो मैं उससे नज़रें नहीं मिला सका था। झिझकते हुए मैं गर्दन झुकाये खड़ा रहा था। उसके दुबारा रसोई में घुसते ही मैंने तेज़ी से नानी के पास आकर ही साँस लिया था। खाना तैयार करके जीती नानी के बैडरूम में ही ले आई थी। एक फुलका नानी को मूंगी की दाल में चूरा करके और मेरे लिए दो फुलके थाली में रखकर। 
“रोटी पतली बनाना। बेलकर बड़ी कर लेना। बड़ी बड़ी रोटियाँ ये खुश होकर खाता है।“ नानी ने जीती को ताकीद की थी।
नानी जीती के कामों में हद से ज्यादा ही मीन-मेख निकाल रही थी। इसलिए जैसे ही जीती कमरे से बाहर निकली, मैंने नानी को गुस्से में कहा, “बेबे, तू ज्यादा टोका टाकी न किया कर। सारा मामों का कसूर नहीं, तू भी नाक-मुँह सिकोड़ने से बाज नहीं आती होगी। अपनी आदतों को बदल।“
मामों का जिक्र आते ही नानी का मुँह अलीगढ़ के ताले की तरह बंद हो गया था, पर कुछ देर के लिए।
“देख, कितनी सुंदर रूई की तरह पोली पोली रोटियाँ हैं। तुम्हारे मरजाणे गोरखे की तो खरपाड़ों की तरह होती है बेस्वादी टेढ़ी-मेढ़ी सी ! लगती हैं, पैरों तले रौंदकर बनाई हों !“
मेरे से अपने रसोइये बहादुर का अपमान सहन नहीं हुआ, “जाने दे बेबे, नेपाली तो बहुत बढि़या खाना बनाते हैं। उनकी कौन बराबरी कर सकता है ?“
निःसंदेह बहादुर बढि़या बावर्ची है। उंगलियाँ चटवा देता है। पर जवाब तो जीती के बनाये खाने का भी नहीं था। मैंने अभी दूसरी रोटी की पहली बुरकी ही तोड़ी थी कि जीती मुझे और रोटी पूछने आ गई। े और लेने से मैंन मना किया तो नानी बदला लेने के लिए मेरे गले पड़ गई, “तेरे जैसे गबरू के सामने छाबा भरा हो तो वो भी वह गप गप छक जाए। तुझे तो ये दो फुलकियाँ ही अड़ गईं।“
“नहीं, बस भूख नहीं बेबे।“ मैंने बहाना मारते हुए डकार लिया था।
“लगता है, मेरे हाथों की पकाई इसे स्वाद नहीं लगीं।“ जीती ने भी नाज़-नखरे के साथ अपना पŸाा फेंका था।
“बाबे की कसम, पेट भरा पड़ा है।“ मुझे जीती के नाराज हो जाने की भी चिंता थी।
“रख दे एक।“
नानी की हल्लाशेरी के साथ जीती ने जबरन एक रोटी मेरी थाली में रखते हुए पूछा था, “खीर और लाऊँ ?“
“नहीं नहीं। कोई ज़रूरत नहीं। पेट भर गया। पानी और ला दे।“
मुझे एक तो पसीना बहुत आता है और दूसरा प्यास बहुत लगती है। जब जीती रोटी की थाली थमाकर गई थी, तब भी मैंने सबसे पहले पानी का गिलास ही उठाया था और अब भी गिलास में बचा हुआ पानी पीता देखकर जीती ने तन्ज़ कसा था, “तभी तो शहरी पोपले से रह जाते हैं। रोटी खाते नहीं, पानी से ही पेट भर लेंगे।“
मैंने छाती फुलाई थी, “तू कहना क्या चाहती है, गांव वाले हमसे ज्यादा ताकतवर होते हैं ? मेरे में जान नहीं ?“
“राजू, मैं तेरी बात नहीं करती।“ ताज़े फूलों में से चूसी हुई खुशबू को फिज़ा में बिखेरती फिरती तितली की तरह वह महक बाँटती जग लेकर कमरे में से बाहर निकल गई थी। कुछ देर बाद पानी के साथ वह एक और फुलका ले आई थी। मैंने थोड़ी-बहुत न-नुकर की।
“एक मेरे कहे पर खा लो।“ जीती ने मनुहार करते हुए जवाब की प्रतीक्षा में मेरे चेहरे पर आँखें गाड़े खड़ी रही।
मेरे मन में आया, उसको जवाब दूँ, “अगर तू इसी तरह प्यार से खिलाये तो तेरे हाथ से मिला ज़हर भी न छोड़ें।“ पर नानी की हाजि़री में मैं ये कैसे कह सकता था। हम दोनों तन्हाई में अकेले होते तो शायद और बात थी।
“ऐसा कर, दुबारा परात भरकर आटा गूंध ले।“ मैंने जीती को खुश करने के लिए कह दिया। उसने तो जैसे पहले ही रोटियाँ पकाकर ढेर लगा रखा था, इस तरह लग गई थी एक के बाद एक लाने में। भूख न होने के बावजूद मै मचलकर तीन-चार रोटियाँ और खा गया। प्रीत-भोजन के बाद जीती हमारे जूठे बर्तन मांजने के लिए ले गई थी। मैं और नानी बातें करने लग पड़े थे।
करीब आधा घंटा बाद जीती दो गिलास और दूध का जग लेकर अंदर आई। शेखी में आकर रोटियाँ तो खा ली थीं, पर दूध की ज़रा भी गुंजाइश नहीं थी। एक्सेसिव ऑफ ऐनी थिंग इज़ बैड। मैं भी परेशान हो गया था। मैंने पेट पर हाथ रखकर भारी भारी साँस लेकर दिखाये थे। मेरी एक्टिंग देखकर नानी और जीती ने मुझे दूधपान से छूट दे दी थी।
“चल, तू ही पी ले गरम गरम। और बैठ जा, दम ले ले थोड़ी देर। सारी दिहाड़ी चल सो चल। तू भी बंदा है आखि़र, मशीन तो नहीं।“
जीती नानी के पैताने संकोच से बैठ गई। उसकी मंद मंद मुस्कराहट मुझे इलाही खुशियाँ बख़्श रही थी। अब पासा पलट गया था। जिस तरह जीती ने मुझे जबरन रोटियाँ खिलाई थीं, मैं भी अब सारा दूध जीती को पिलाने की ठाने बैठा था।
पर जीती चालाक निकली। वह जग में पहले ही मापकर दो गिलास दूध लेकर आई थी जिसमें से एक नानी ने ले लिया था और दूसरा वह आसानी से पी गई थी। नानी अपने दाँत उतारकर डिब्बी में रख रही थी कि जीती नानी से आँख बचाकर इशारे से कुछ बोली थी। यद्यपि उसकी आवाज़ तो नहीं आई थी, पर होंठों की हरकत से जो मूक शब्द बोले थे, वो मैं अच्छी तरह समझ गया था। ‘पोला शहरी !’ उसने मुझे छेड़ा था। इससे पहले कि मैं भी भाजी मोड़ता, नानी का ध्यान मेरे पर आ टिका था। वह नानी का और अपना गिलास लेकर चली गई।
उसके छेड़ने ने मेरे अंदर खलबली मचा दी थी। मैं तड़प रहा था कि नानी सोये तो मैं और जीती कल्लोल करें। नानी लेट तो गई थी, पर लेटे लेटे एक बात छोड़ती थी तो झट से दूसरी पकड़ लेती थी। बातें करते हुए नींद कैसे आ सकती है ? सोने के लिए तो चुप होकर आँखें बंद करनी ज़रूरी है। जब तक मैं नानी के पास बैठा था, नानी की बातें खत्म होने वाली नहीं थी। अगर जीती दूध में नींद की गोलियाँ घोल देती तो नज़ारा आ जाता। तब तो नानी कब की सो गई होती। नानी को सोने के लिए अकेली छोड़कर मैं नकली उबासियाँ लेता हुआ बिस्तर पर से उठा था, “मैं उधर जाकर लेटता हूँ।“
“उधर किधर ?“
“दूसरे कमरे में।“
“यहीं पड़ा रह।“
“और फिर जीती ?“ मैंने कमरे में लगे दो बिस्तर देखकर कहा था।
“उसको तो मैंने कह दिया, बेशक आज का दिन अपने घर चली जाए।“
मेरा ऊपर का साँस ऊपर और नीचे का नीचे रह गया। नानी ने यह क्या बनते काम में रोड़ा अटका दिया। मुझे ऐसा लगा जैसे दाल खाते खाते अचानक मुँह में कंकड़ आ गया हो और सारा स्वाद बिगड़ गया हो। मेरा मूड ही खराब हो गया था।
जीती सारे काम निबटाकर कमरे में नानी से इजाज़त मांगने आई थी, “अच्छा, बेजी, मैं फिर जाऊँ ?“
“आ गया नरैणा ?“ नानी ने उठकर बैठने की कोशिश की थी।
“नहीं, बापू तो नहीं आएगा।“
“तू कहकर नहीं आई थी ?“ नानी ने उसको घूरा था।
“नहीं, बापू तो घर में नहीं था, गया हुआ था कहीं। मैं बीबी को बताकर चली आई थी। वो कहती थी, भेज दूँगी बापू को, पर पता नहीं।“
“थोड़ी देर इंतज़ार कर ले।“ नानी ने अपनी टांगें ऊपर खींचकर जीती के बैठने के लिए जगह बनाई थी।
“बापू अभी आया नहीं होगा। कोई बात नहीं, मैं चली जाती हूँ।“ जीती ने कहा।
“न बीबा, मैं जवान-जहान लड़की को इस वक्त अँधेरे में अकेली नहीं जाने दूँगी। ऊपर से जमाना तो देख कैसा है ?“
“पर क्या पता, बापू कब लौटे।“
जब नानी बोलती थी तो मैं नानी की तरफ देखने लग जाता था, जब जीती बोलती तो जीती की ओर सिर घुमा लेता था। वह विवश होकर बैठ गई थी।
कुछ देर बैठी रहने के बाद नानी ने जीती की बेजारी को महसूस करते हुए कहा था, “अगर जाना ही है तो चल मैं राजू को भेज देती हूँ तेरे साथ।“
मुझे नानी से लेशमात्र भी यह आशा नहीं थी। मैं खुश हो गया था।
“राजू बेटा, उठ ज़रा। हिम्मत करके इसको छोड़ आ।“
मैंने तुरंत रजाई उतारकर फेंक दी थी और कराटे वालों की तरह उछलकर खड़ा हो गया था।
“आप तो यूँ ही तकलीफ़ करे जाते हो बेजी। मैं चली जाऊँगी।“ साफ़ पता लग रहा था कि जीती यह दिल से नहीं कह रही थी।
“कोई बात नहीं, मैंने कौन सा यहाँ बैठे ने मोटा होना है। चलता हूँ, इस बहाने गाँव भी देख लूँगा।“ मैंने नानी का समर्थन किया था।
“यहाँ देखने को क्या है ? यह कौन सा चंडीगढ़ है ?“ जीती मुझे ज़हमत नहीं देना चाहती थी।
“क्यों ? चंडीगढ़ को क्या आम लगे हैं ?“
इससे पहले कि नानी की सलाह बदलती, मैं जीती को लेकर बाहर निकल जाना चाहता था। मैंने आगे बढ़कर दरवाज़ा खोला था, “अच्छा बेबे, मैं सैर कर आऊँ।“
नानी ने बिस्तर पर पड़े खेस को दिखाते हुए कहा, “बाहर ठंड होगी, लोई ले ले।“
“न ठंड कहाँ !“ नानी को जवाब देकर मैंने मन ही मन सोचा था, जहाँ दो जवान जिस्मों में निकटता हो, वहाँ ठंड नहीं, गरमी होती है।
“अच्छा फिर, राह में कुŸो-बिल्ले होते हैं, सोटी ले जा।“
“सोटी को क्या है ?“
मैं बाहर निकलने ही लगा था कि नानी ने अपने सिरहाने से हॉकी उठाकर मेरी तरफ बढ़ा दी थी। नानी छोटे मामा की उस हॉकी का चलते समय कभी कभार इस्तेमाल किया करती थी। मैंने चुपचाप हॉकी पकड़ी और वहाँ से खिसकने की सोची। यदि अधिक आना-कानी करता तो नानी मेरे बाहर जाने पर पाबंदी ही लगा देती।
घर से बाहर निकलकर जब हमने दरवाज़ा बंद किया तो सारे मुहल्ले में सन्नाटा पसरा था। जिधर जीती गई, मैं भी उधर हो लिया। शहरी तड़क-भड़क वाली जि़न्दगी से एकदम उलट शांतमय गाँव का वातावरण मुझे छू गया। मुझे यूँ लगा, जैस ‘गलियाँ हो जाण सुन्नियाँ, विच मिरजा यार फिरे’ वाली साहिबा की फरियाद मुद्दतों बाद उस समय रब्ब ने सुन ली थी। नहीं तो दो प्रमियों को इस कमबख्त जहान में एकांत कहाँ नसीब होता है ? शायद ठंड के कारण लोग अपने अपने घरों में घुसे हुए थे। जीती को अकेले जी भरकर देखने का मुझे बढि़या अवसर मिल गया था। मैंने बेधड़क होकर जीती को सिर से लेकर पांव तक निहारा था। सच, जीती जैसी सुंदर लड़की मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। कई लड़कियों की शक्ल सुंदर होती है, पर शरीर नहीं। अगर किसी का शरीर सुंदर होता है, शक्ल सुंदर नहीं होती। पर जीती, जीती की तो हरेक चीज़ सुंदर थी। उसका चेहरा, शरीर, हाथ-पैर, उसका चलना, बोलना, हँसना। क्या क्या गिनाऊँ ? उसके पास आदमी को शहीद कर देने वाली अदाओं की कोई कमी ही नहीं थी। घरों की मुंडरों पर लगे बल्बों के प्रकाश में जीती का अंग अग धूप में रखे चाँदी के वर्क की तरह चमक रहा था। उसको प्रेममय दृष्टि से देखते हुए मुझे सरदार पंछी का शेर याद हो आया था जो जीती पर पूरी तरह फिट होता था - ‘जबीं रौशन, नयन रौशन, लबो रुखसार भी रौशन। अंधेरे में अगर कहते तो, किस किस को दीया कहते।’
जीती के पतले और सुर्ख-शरबती अधर देखकर मेरा मन और भी अधिक ललचाने लगा था। जीती ने मेरी निगाहों से अपनी नज़रें भिड़ाकर मुझे दूसरी दिशा में देखने के लिए मज़बूर कर दिया था। लेकिन मैं उसे चोर निगाहों से देखने से स्वयं को नहीं रोक सका। मैं और जीती तेज़ तेज़ चले जा रहे थे। परेड करते फौजियों की तरह एक दूसरे के कदम से कदम मिलाकर, कंधे से कंधा मिलाकर। मैं सोच रहा था, उसके साथ कोई बात शुरू करूँ। पर क्या ? यदि कहता, ठंड लग रही है तो वह कहती - ‘कंबल ले आता फिर।’
यदि यह कहता कि अँधेरा बहुत है तो वह मेरी मूर्खता पर हँसती, “रात में और क्या धूप निकलती है ?“
वार्तालाप की शुरूआत करने के लिए कोई भी फिजूल और बेतुकी सी बात छेड़ी जा सकती थी, पर मुझे कुछ भी सूझ नहीं रहा था। मैं अभी असमंजस में था कि वह चलते चलते रुक गई थी।
“रुकना, एक मिनट।“
मुझे जीती के यूँ अचानक खड़े होने का पता न चला। उसके वाक्य के पूरा होने तक मैं दो तीन कदम आगे बढ़ चुका था। मैं पीछे मुड़कर उसके करीब आया था। हम एक-दूजे आमने-सामने खड़े थे। जीती ने ओढ़ा हुआ शॉल खोलकर अपनी बांहों को एक-दूसरे के विपरीत फैला लिया था। शॉल अपनी पीठ पीछे तानकर जीती मेरे सामने खड़ी थी। शॉल का एक सिरा उसके दायें हाथ में था, दूसरा बायें हाथ में। उसकी छाती में असली आकार से ज्यादा उभार आया देखकर मुझे लगा था, जैसे वह मुझे जफ्फी डालकर ऊपर से शॉल डाल लेगी। इस तरह दो शरीरों के इर्दगिर्द लिपटे शॉल की गिरफ्त हमें कसकर एक दूसरे से अलग नहीं होने देगी।
मेरा मन करता था, जीती को एकाएक बांहों में भर लूँ। जैसे दो बेलन गन्ने को निचोड़ते हैं, वैसे ही जीती के गुलफाम छरहरे शरीर को मैं अपनी बाहों में कस लूँ। समीप ही मिट्टी का एक टीला था जिसको ओट के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था। कामवासना की ज्वाला मुझे भस्म किए जा रही थी। मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा था। मैं आगे बढ़कर उसे अपनी बांहों के घेरे में लेने ही लगा था कि उसने शॉल को फटककर झाड़ा था और दुबारा सही ढंग से लपेटते हुए ‘चल’ कहकर चल पड़ी थी।
मेरे सारे मचलते अरमान पानी की झाग की तरह नीचे बैठ गए थे। कामक्रीड़ा का विचार मुल्तवी करके मैं उसके पीछे भागा था। फुंकारते वेग को कैसे काबू में किया था, यह मैं ही जानता था। मुहल्ले में से निकलकर हम गाँव की सीमा में घुस गए थे। गाँव का बाहरी राह होने के कारण बेशक ठंड थी, पर मौसम साफ़ था। धुंध अभी नहीं पड़ी थी। आधी रात के बाद पड़ने लगती थी। चाँद की चाँदनी और सितारों की मद्धम रौशनी के बावजूद अँधेरा बहुत सघन था। हमें एक-दूसरे के चेहरे साफ़ नहीं दिखते थे, बस, बुत से नज़र आते थे। इस राह पर रौशनी का कोई इंतज़ाम न होने का एकमात्र कारण यह था कि बहुत से घरों के गलियों की तरफ मुँह थे और इस तरफ उनकी पीठें लगती थीं। दो प्रांतों की साझी राजधानी चंडीगढ़ की रात के समय की चमक-दमक और आँखें चुंधिया देने वाली स्ट्रीट लाइटों का अभ्यस्त होने के कारण गाँव की यह घनघोर अँधेरी रात का मुझे रोमांटिक लगना स्वाभाविक ही था। पर जीती का साथ तो सोने पर सुहागा ही था। हसीन औरत अँधेरे में और भी हसीन लगती है। इस बात का आभास भी मुझे जीती को देखकर ही हुआ था। उसके छलक पड़ते रूप की मार झेली नहीं जाती थी।
थोड़ा और आगे गए थे तो इक्का-दुक्का खम्भों पर बिजली के बल्ब जगमगाते होने के कारण रास्ते में पहले से कुछ अधिक उजाला था। गुरुद्वारे के सामने से गुज़रते हुए सिर निवाकर मैंने यही दुआ मांगी थी, ‘हे सच्चे रब्ब ! मेरे लिए कोई चमत्कार कर दे !’।
सारा गाँम घूमकर हम बस्ती के नज़दीक आ गए थे। फिरनी से हमें जिस गली में मुड़ना था, उसके मोड़ पर चार-पाँच कुŸो पुलिसवालों की तरह नाका लगाए बैठे मीटिंग कर रहे थे। जैसे ही हम उनके पास से गुज़रने लगे, एक कुŸो ने ‘भौं-भौं’ करके मेरे पर धावा बोल दिया था और उसके पीछे-पीछे ही बाकी के भी पड़ निकले थे। जीती को उनमें से एक कुŸाा भी नहीं भौंका था। सभी मेरे पीछे ही पड़े थे। मानो मेरे अकेले के ही वारंट निकले हांे। मैं पहले तो एकदम भय खा गया था कि कहीं मेरी टाँग ही न फाड़ दें। मैं डर का मारा जीती की आड़ में छिपने को फिरता था। पर फिर मेरे मन में आया था, मैं यह क्या करने लगा हूँ ? मेरे साथ जीती है। औरत सदैव बहादुर आदमी की ही कद्र किया करती है। जिस आदमी को कुŸाा ही डरा गया, उससे बड़ा डरपोक और कौन होगा ? एक ही साँस में हनुमान चालीसा का जाप करते और दिलेरी दिखाते हुए मैंने एक कुŸो के जबाड़े पर हॉकी घुमाकर मारी थी तो बाकी के सारे कुŸो मुझे काटने को दौड़े थे। जिस कुŸो को हॉकी लगी थी, वो तो वहीं उछलकर गिर पड़ा था। मैं हॉकी घुमाकर दूसरे कुŸाों की तरफ हुआ ही था कि सभी चाऊँ-चाऊँ करते दुम दबाकर भाग खड़े हुए थे। कुŸाों को मैदान छोड़कर भागते देख मेरे अंदर और ज्यादा हिम्मत आ गई थी। यह जानते हुए भी कि वे मेरे हाथ नहीं आने वाले थे, मैं उनके पीछे कुछ दूरी तक दौड़ा था। मिनटों-सेकेंडों में ही वे मेरी आँखों से ओझल हो गए थे। कुŸाों को तितर-बितर करके मैं अपने आप को जीती की नज़रों में हीरो बना अनुभव कर रहा था। लौटकर आया था तो जहाँ मैं जीती को छोड़ गया था, वह उसी स्थान पर खड़ी मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। जीती के करीब आकर उससे शाबाशी लेने के लिए मैंने खुद राह बनाई, “पता नहीं साले लोग कुŸो क्यों रखते हैं ?“
“बेजी बताते थे, तुम्हारे घर में तो खुद दो कुŸो हैं।“ बोलते हुए वह तीखी चाल चल पड़ी थी।
मैं भी उसके बराबर चलने के लिए अपनी चाल में चुस्ती लाया था। जीती की हाजि़र-जवाबी ने मुझे उलटे मुँह गिरा दिया था। मैं सफ़ाई देने लगा, “वो तो डैडी ने रखे हैं। मुझे कुŸो रखने का कोई शौक नहीं। वैसे वो कोई ऐसे-वैसे कुŸो नहीं है। डाबर मैन तो चोटी का कुŸाा है। जानती है, कितना मंहगा मिला था ? छोटा गद्दी तो वैसे ही बहुत सुंदर लगता है, पूरे घर में ठुमक ठुमक कर घूमता फिरता है। कहाँ वो और कहाँ ये गंदे-सड़े शरीर वाले आवारा कुŸो !“
“नहीं राजू, ऐसा नहीं कहते। लाहनत है उस आँख पर जो सिर्फ़ बाहरी खूबसूरती को देखती है और दूसरी खूबियों को देखने का यत्न नहीं करती। तू क्या जाने इनके हमें कितने फायदे हैं। कुŸो को पालने का तो यज्ञ करने जितना पुण्य मिलता है। युरोपियन लोग कुŸो को बड़ा शुभ मानतेे हैं। पश्चिमी देशों में ईसाई लोग अपना भाग्य चमकाने के लिए क्रिममस से पहले खासतौर पर कुŸाा खरीदकर लाते हैं। पुण्य का काम करने के लिए दोस्तों-मित्रों को तोहफ़े के तौर पर कुŸाा भेंट करते हैं। विदेशों में बरसों से यह रीति चली आ रही है। पर कुछ अज्ञानी लोग इस रिवाज को भेड़चाल समझकर क्रिसमस से पहले कुŸाा खरीदते हैं और बाद में बेच देते हैं या घर से निकाल देते हैं। ऐसे व्यक्तियों को अक्लदान देने के लिए ‘डॉग इज़ फॉर लाइफ़, नॉट जस्ट फॉर क्रिसमस’ अंग्रेजी मुहावरे का जन्म हुआ है।
कहते हैं, जहाँ कुŸाा हो, वहाँ आसपास कोई बुरी बला नहीं भटकती। कुŸो के समान कोई दूसरा जानवर नहीं। ये सबसे वफ़ादार जानवर है। यह मालिक का बंदों की तरह नमक खाकर हराम नहीं करता। जीते जी पालक का दर नहीं छोड़ता। एक एक बुरकी की कीमत चुकाने के लिए दिनरात पहरा देता है, मालिक की जान-माल की रखवाली करता है। डंडे खाकर भी यह बेज़बान आदमी के आगे-पीछे पूंछ हिलाता रहता है। परमात्मा ने इस मासूम जानवर को इतनी शक्ति दी है कि भूकम्प या कोई और संकट आने से पूर्व इसको ज्ञान हो जाता है। वैज्ञानिकों ने भी इस बात को प्रमाणित किया है। कुŸो की सूँघने की शक्ति बहुत होती है जिसका लाभ उठाकर पुलिस अपराधियों तक पहुँचती है। कुŸो की टेढ़ी पूंछ के बारे में तुझे बताने की ज़रूरत नहीं।“
“अगर हलक जाए तो कुŸाा खतरनाक भी बहुत है। जिसे काट ले, उसे पेट में चौदह टीके लगवाने पड़ते हैं। वेदों में लिखा है, जब कोई देवता स्वरूप आदमी मरता है तो कुŸाा उसके शोक में चुपचाप आँसू बहाता रहता है। और यदि कोई हैवान मरे तो कुŸाा ज़ोर ज़ोर से भौंकता है, पर एक भी आँसू नहीं गिराता।“
जीती कथावाचकों की तरह प्रवचन किए जा रही थी। मैंने उसे बीच में टोका, “तुझे इतने गूढ़ ज्ञान की बातें कौन बताता है ?“
“यह तो जनरल नॉलेज है।“
“कमाल है, तू तो गाँव में रहती है। मैं शहर में रहता हूँ, फिर भी ऐसी बौद्धिक बातों की मुझे जानकारी नहीं। कहाँ तक पढ़ी है ?“
“इस बार मैट्रिक कर लेती अगर न छोड़ती।“ जीती की आवाज़ में से पश्चाताप सा टपका था।
“छोड़ क्यों दी ?“ 
“मैं तो पढ़ना चाहती थी। बेजी...।“ कहकर संकोच में उसने खाली स्थान छोड़ दिया, मेरे भरने के लिए। उसके अधूरे वाक्य को अपने जे़हन में मुकम्मल करता हुआ मैं सब कुछ जान गया था कि जीती के घरवालों ने जीती की पढ़ाई छुड़वाकर नानी की खिदमत में छोड़ दिया था। जीती को अफ़सोस से दूर ले जाते हुए मैंने कहा, “यह बात मेरी समझ में नहीं आई कि वे कुŸो मुझे ही क्यों भौंके ?“
“एक को देखकर दूसरा भौंका ही करता है।“ जीती ने दाँत निपोरते हुए शरारत की थी।
मैंने इस मजाक के जवाब में दाँत पीसते हुए उसकी गर्दन को दोनों हाथों में लेकर झटका था, “अच्छा जी, तुमने मुझे कुŸाा कहा ?...क्यों ?“
“हाय-हाय...मर गई मैं...गला छोड़, दम घुट रहा है।“
जीती ने अपने हाथों से गला छुड़ाने का हल्का-सा यत्न तो किया था, पर विशेष ज़ोर नहीं लगाया था। शायद वह भी कब से मेरे साथ यूँ खुलने को घूमती थी। मैंने उंगलियों पर दबाव डालकर जीती का गला सचमुच ही घोंटने का ड्रामा करते हुए उसको खींचकर थोड़ा अपने करीब कर लिया था।
“अरे क्या करता है राजू, छोड़ भी, कोई देख लेगा।“
जीती के मुँह से ये शब्द सुनने के लिए तो मैं तरसा पड़ा था। मैं भलीभाँति जानता था कि औरत की ‘न’ का मतलब ‘हाँ’ और ‘कोई आ जाएगा’ का अर्थ ‘कर ले’ हुआ करता है। मैं जानबूझ कर जीती के साथ सटा था तो वह मुझे डराने के लिए ज़ोर से चीखी थी। मैंने सामने वाला हाथ तो तेज़ी से गर्दन पर से ऊपर उठा लिया था मगर पीछे वाला हाथ मैंने उसकी पीठ पर झावे की तरह रगड़कर नीचे किया था। ज़ाहिर है कि यह क्रिया मुझे बहुत तेज़ी से निभानी पड़ी थी। जीती के बदन के साथ लगने के कारण एक आनंदभरी झनझनाहट मेरे पूरे शरीर में दौड़ गई थी। मुझे अपने हाथों में से भीनी भीनी खुशबू उठती प्रतीत हुई थी। मेरा मन करता था कि अपने दस्त-ए-मुबारक को चूमता रहूँ।
जबरन खाना और खिलाना, हँस-हँसकर बोलना और बुलाना, कष्ट न देना, बल्कि मदद करना, एकटक देखे जाना, नज़रें मिलते ही झट से नज़रें झुका लेना, गहरे मजाक करना... शास्त्रों में प्रेम के जितने लक्षण बताए गए हैं, वे सब लक्षण पूरे होते दिखाई देते थे। जीती का रुख देखते हुए मैंने प्रश्न किया था, “अच्छा जीत, तेरी नज़र में प्रेम के क्या मायने हैं ?“
जीती सुनकर काँप गई थी और कुछ पल ख़ामोश रही थी। मानो उसे मुझसे ऐसा कुछ सुनने की आस नहीं थी। फिर वह धैर्यपूर्वक बताने लगी थी, “मेरे ख़याल में...“
जीती ने व्याख्यान प्रारंभ किया ही था कि सामने से चार-पाँच लड़कों की टोली घुसर-फुसर करती हमारी ओर आती दिखाई दी। उन्हें देखकर जीती चुप हो गई थी और उसने नज़रें झुका ली थीं। जीती के ऐसा करने का मंतव्य मैं समझ गया था। चंडीगढ़ की भी कई लड़कियों को लोकलाज मार जाती है। शहरों में भी अभी तक पूरी तरह जागरूकता नहीं आई। गाँव तो पिछड़े हुए हैं ही। हमें एक साथ देखकर उन मूढ़-अक्ल देहातियों को जीती को बदनाम करने का बहाना मिल जाना था। माशूक की बदनामी करवाने वाला आशिक कलंकी कहलाता है। मैं मौके की नज़ाकत समझते हुए जीती से थोड़ा दूर हट गया था और इस तरह हमने लड़कांे को भ्रम में डालने का असफल प्रयास किया था। पर दुनिया वाले भी कयामत की नज़र रखते हैं। उन्होंने हमें दूर से आपस में बातें करते देख लिया था। मैं अपनी ओर से जीती पर कोई उलाहना आने के डर से उससे दूर ही रहा था। वह टोली करीब आई तो मैंने सोचा कि वे या तो मेरी तरफ से या जीती की बगल से आगे बढ़ जाएँगे। पर उन्हांेन तो शर्म ही उतारकर रखी हुई थी जैसे। वे सभी जानबूझ कर मेरे और जीती के बीच से निकले थे, जिसकी वजह से हम दोनों को ही अपनी अपनी तरफ की दीवारों की ओर सरकना पड़ा था। वे वाघा की सरहद की तरह हम दोनों को अलग कर गए थे। उस गली के सिरे तक हम वैसे ही ख़ामोश फासला रखकर चलते गए थे। मोड़ मुड़ते समय मैंने पलटकर पीछे देखा था। वे लड़के भी गर्दन घुमा घुमाकर देख रहे थे, हँस रहे थे और एक-दूसरे को कुछ बता रहे थे। मुझे उन पर बहुत गुस्सा आया था। शुक्र था कि मेरी जेब में रिवाल्वर नहीं था। यदि होता तो सबको उड़ा देता।
वहाँ से मुड़कर हम तंग-सी गली में प्रवेश कर गए थे। अब हमारे बीच जो फासला था, वह कम हो गया था। चलते चलते जीती ने एकाएक मुझे बाजू से पकड़कर अपनी ओर खींच लिया था। मैं भी उसको बांहों में भरकर दीवार के साथ लगने ही लगा था कि वह बोल पड़ी थी, “नीचे देखकर चलो। अगर मैं न बचाती तो नीचे पड़े गूं पर पैर होता तुम्हारा।“
मैंने नीचे देखा था। किसी जानवर ने हग रखा था। हम फिर चल पड़े थे। मैं मन में सोचने लगा कि क्या वाकई उसने मुझे गूं पर पैर रखने से बचाया था ? या बहाने से मुझे पकड़ा था ? नहीं ! उसने मुझे छूने की खातिर ही ऐसा किया था। गूं से बचाने के लिए तो वह मुँह से भी बोल सकती थी। हाँ-हाँ ! यही दुरुस्त है। मेरे मस्तक में विचारों के हथौड़े बज रहे थे।
जीती ने दूर से ही उंगली का इशारा करके अपना घर दिखाते हुए कहा था, “वो वाला घर है।“
उसका घर करीब आ गया था और मैं अभी तक कोई एक्शन नहीं ले सका था। जीती को दहलीज पर चढ़ाकर जब लौटने लगा तो उसने मुझे रोका था, “अंदर नहीं आएगा ?“
मैं अभी फैसला कर ही रहा था कि अंदर से जीती की माँ आ गई थी। मैं उसे जानता था क्योंकि नानी जब भी हमारे पास चंडीगढ़ आती है तो हर बार जीती की माँ को अपने साथ लेकर आती है। वृद्ध होने के कारण नानी अकेली सफ़र नहीं कर सकती। मैंने जीती की माँ को नमस्ते की।
“आजा राजू, अंदर आ जा।“ जीती की माँ ने खुशामदीद कहते हुए मेरे सिर पर हाथ फेरा था।
“फिर कभी सही।“ मैंने घिसा-पिटा बहाना बनाया था।
“फिर कहाँ आना है तूने।“ जीती के शब्दों में मनुहार, तड़प, गिला, शिकायत कई जज़्बे पिराये हुए थे।
कोई और बात न सही, कम से कम जीती को कुछ पल और आँखों के सामने देखने का बहाना मिल रहा था। मैं अंदर चला गया।
“धन्य भाग्य, चींटी के घर भगवान पधारा है।“ जीती की माँ ने फटाफट संदूक में से नई नकोर चादर निकालकर चारपाई पर बिछाई और मुझे कमरे में बिठाया। जीती का बापू भी आ गया। डैडी की अमृतसर में नियुक्ति के समय वह हमारे पास आया था। तब मैं आठ-दस साल का था। मुझे उसकी याद थी। नरैण सिंह में ज्यादा बदलाव नहीं आया था सिवाय उसकी सफ़ेद दाढ़ी के।
जीती ने अपने बापू से मेरा परिचय करवाया, “बा जी का दोहता है ये।“
मेरे नाना को सब ‘बा जी’ ही कहते थे। नरैण सिंह मुझे देखकर पहले ही अंदाजा लगा चुका था। पर तसल्ली करने के लिए पूछा था, “कौन सी, जो बीबी जगरामी ब्याही हुई है, उसका काका है ?“
मैंने ‘हाँ’ में सिर हिलाया था तो वह मुझसे मुखातिब हुआ था।
“मैं आने ही वाला था। अभी अभी आया था। और भई, जगरामां वाला लाणा-बाणा ठीक है?“
“हाँ जी।“ मैं पूरे अदब के साथ बोला था।
“अब तो चंडीगढ़ रहते हैं ये। चंडीगढि़ये कहो।“ जीती की माँ को मेरे बारे में ज्यादा जानकारी थी। उसने दुरस्त किया था। 
नरैणे ने अपने आप को सही ठहराया था, “कहलाएंगे जगरामां वाले ही, बेशक विलैत चले जाएं। और भई जवान, तेरे भापा और बीबी भी आए हैं ?“
“नहीं जी, उनके पास तो टाइम नहीं था।“
“हाँ भाई, उनके पास फुरसत कहाँ ? तेरे भापे की तो पाँचों उंगलियाँ घी में हैं। ऊपर वाले अफसरों से खूब बनती है। चमड़े की चलाते हैं। है कि नहीं ?“
मैं चकित होकर सोचने लगा कि नरैणे को डैडी के डी.जी.पी. के साथ अच्छे संबंधे होने की जानकारी कहाँ से मिली ? हो सकता है नानी ने बताया हो। हाँ, नानी की ही ज़बान नहीं रही होगी।
बाहर से आए एक छोटे से बच्चे ने चारपाई के पाये के साथ खड़ी की मेरी हॉकी उठा ली थी। नरैणे ने उसको झिड़ककर हॉकी वापस रखने के लिए छीनी थी। बच्चे को रोते देख मैंने नरैणे से कहा, “कोई बात नहीं, बच्चा है। खेल लेने दो।“
वह बच्चा अपने कद से ड्यौढ़ी हॉकी को लेकर ज़मीन पर पड़े कंकड़ों पर मारने बैठ गया। नरैणे ने उस बालक का परिचय देते हुए बताया था कि वह जीती की बड़ी बहन का बेटा था और उनके पास ही रहता था।
जीती के माँ-बाप, दोनों में से किसी ने भी मेरे बराबर बैठने की जुर्रत नहीं की थी। जैसे अरदास करते समय खड़े होते हैं, वैसे ही वे मेरे आगे हाथ जोड़े ताबेदारी में खड़े थे। उनका व्यवहार अदब की सीमा पार करके गुलामी की हद तक पहुँचा हुआ था। इन लोगों को विरासत में ही ऐसे संस्कार मिलते हैं जिनसे ये चाहकर भी मुक्ति नहीं पा सकते। मुझे इनका शनाख्ती परेड के लिए खड़े मुजरिमों जैसा व्यवहार बहुत चुभा था। 
नरैणे ने अपने जानकारी ताज़ा रखने के लिए मुझसे पूछा था, “साहब की ड्यूटी बाडर पर ही होगी अभी भी ?“
“नहीं, बॉर्डर से तो बहुत टाइम हो गया बदली हुए को।“
“समय बीतते क्या देर लगती है। ज़रा-सा होता था तू। अब तो रब की मेहर से गभरू हो गया है। ऐसा लगता है जैसे कल की ही बातें हों। क्या सेवा करें तेरी सरदारा ? सोडे की बोतल-शोतल लाएं ?“
नरैणे ने मुझे मेरा बचपन याद करवाया था। छोटे होते मैं कंचे वाली बोतल का सोडा दूध में डालकर बड़े चाव से पिया करता था। मेरी यह आदत नरैणे को अभी तक याद थी। 
“रुत सोडे की बोतलों की है ?“ जीती की माँ ने घरवाले के कहे में नुक्स निकाला।
“गरम करके ले आओ दूध फिर।“
“नहीं जी, किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं।“ मैंने कहा।
“हाँ जी, बू आती होगी हम गरीबों के खाने-पीने की चीज़ों में।“
“ना जी, यह अंदाज़ा आपने कैसे लगा लिया ?“ नरैणा गलत मतलब लगा गया था। मैं सचमुच ऊँच-नीच, जात-पात, धर्म-मज़हब, छुआछूत, बड़ा-छोटा, गरीब-अमीर, नंग, नस्ल आदि भेदभावना में विश्वास नहीं रखता। ‘मानस की जाति सभै ऐके परिचाहिन बो।’ के सिद्धांत पर अमल करता हूँ। हालांकि मेरा पेट भरा हुआ था, फिर भी परीक्षा में से गुज़रने के लिए मुझे उनके घर से किसी न किसी वस्तु का सेवन अवश्य करना था, “ले आओ, आपको गुस्से क्यों करना है।“
नरैणे ने जीती को आज्ञा दी और वह उठकर चली गई। कुछ ही पल में जीती सफ़ेद रंग का अल्मुनियम का डंडी वाला दूध का कप ले आई थी। मैं बिना हिचकिचाहट के दूध पीने लगा था।
हमारी कोठी और उनकी कोठरी तक पहुँचने के लिए कितना फासला तय करना पड़ता था। पर इतना अधिक भी नहीं था कि खत्म ही न किया जा सकता हो। क्यों ईश्वर ने गरीबी और अमीरी बनाकर इन्सानों को दो धड़ों में बांट रखा है ? कहीं इतने कमरे हैं और कोई रहने वाला नहीं, कहीं पूरे सदस्यों के लिए कमरे ही नहीं। जीती के निर्धन बाप के पास बेटी के तन को ढकने के लिए कपड़ा खरीदने को धन नहीं है और हमारे पास इतना है कि सैकड़ों की इज्ज़त ढकी जा सकती है।
जीती सुघड़, सयानी, सुशील, सभ्य, शरीफ, चुस्त, होशियार, सुंदर-सुनयनी और सूझवान आदि गुणों से भरपूर मेरे मापदंडों पर पूरी उतरती थी। मैं तो निःसंदेह उसके पूरी तरह योग्य था ही। मुझसे अधिक खुश उसको और कौन रख सकता है ? मैंने अपने अंतःकरण में जीती के साथ विवाह करवाने का संकल्प कर लिया था। हमें एक होने से कौन रोक सकता है ?
बिरादरी रोक लगा सकती है। जीती के साथ तेरी जाति नहीं मिलती। तू जट्ट सरदार और वह ? कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली। मेरे दिमाग के किसी कोने में से आवाज़ उठी थी। मैंने उस आवाज़ को दबाने का यत्न किया था। लो, अब तो ज़माना बदल गया है। लोग जागरूक और प्रगतिशील विचारों के हो गए हैं। जातियों, गोत्रों की परवाह नई पीढ़ी के पढ़े-लिखे अधिक नहीं करते। चलो, अगर मान भी लें कि जातियों को अब ज्यादा तरजीह नहीं दी जाती। अंतर्जातीय विवाह आम-सी बात हो गई है। पर क्या नरैणा मान जाएगा अपनी बेटी का हाथ तेरे हाथ में देने को ? मेरे दिमाग की पिटारी में बैठा शक का साँप फुंफकारा था।
उसको भला क्या एतराज हो सकता है ? झुग्गियों से उठकर उसकी लड़की को महलों में बसना है। उसका दिमाग खराब है कि वह कोई टंटा करेगा ? अव्वल तो वह विरोध नहीं करेगा, रब्ब न करे, अगर कोई हील-हुज्जत की भी तो क्या कर लेगा ? ज्यादा ही हुआ तो जीती को भगाकर ही ले जाऊँगा। मुझ लंडे चिड़े की क्या पूछ पकड़ लेगा ? मेरी जवानी का जोश कुछ ज्यादा ही उबाला खा रहा था। 
तभी एक और बिजली मेरे जे़हन में कड़की थी। फजऱ् करो, यदि तेरे घरवाले न माने, तब? अर्दली की बेटी का डोला कैसे शीशमहल जैसी कोठी में घुसने देंगे ? उनका भी समाज में कोई रुतबा है। खानदान की इज्ज़त का मामला है। रिश्तेदारी बराबर में ही निभा करती है। यह कोई गुड्डे-गुडि़या का खेल है ? 
मेरे अंदर के आशिक ने जिद्द की। उन्हें मेरी खुशी से ज्यादा अपने नाक की परवाह है ? जब मियाँ-बीवी राजी तो क्या करेगा काज़ी ? ज़ोर तो पूरा लगा दूँगा उन्हें मनाने की, अगर बात बनती न दिखाई दी तो उनकी इच्छा के विरुद्ध कोर्ट में जाकर शादी कर लूँगा। खुद सीधे हो जाएँगे। ईश्वर की कृपा से इकलौता पुत्र हूँ मैं। अपने कुलदीपक के मोह में खुद धीरे धीरे मान जाएँगे। यह मसला भी हल होता लगा तो सबसे प्रमुख शक ने मेरी सोच का रास्ता रोक लिया था - पर यदि जीती रज़ामंद न हुई तो उस सूरत में क्या करेगा ?
मेरा अंहकार बोला था - उसकी क्या मजाल है कि उज्र कर जाए ? उसका तो बाप भी मानेगा। यदि घी सीधी उंगली से न निकला तो मुझे उंगली टेढ़ी करनी भी आती है। प्रेम और जंग में हर चीज़ जायज है। जबरन उठाकर ले जाऊँगा। मेरी नहीं बनेगी तो मैं किसी दूसरे के लायक भी नहीं छोड़ूँगा। जो औरत शक्ल और अक्ल से न प्राप्त हो सके, वह पैसे और ताकत से हथियाई जा सकती है। पर मैं जानता हूँ, मुझे यह सब करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। जीती तो खुद मेरे पर फिदा हुई घूमती है।
दूध के उस एक कप को पीने के लिए जितना अधिक समय लगा सकता था, मैंने लगाया था। आखि़र दूध ने खत्म होना ही था। दूध का आखि़री घूंट भरकर मैंने कप नीचे पाये के पास रख दिया था। उस सबकी आवभगत का धन्यवाद किया था और अनुमति लेकर उठ खड़ा हुआ था। 
बाहर आकर मैं अपने आप पर खीझ रहा था। मेरे साथ भी ‘न सूत-न कपास’ वाली हुई थी। ठंड में ठिठुरा भी था और कुछ कर भी नहीं सका था। मैं अभी जीती के घर से अधिक दूर नहीं आया था। मैंने अन्तिम बार जीती के घर की ओर खै़रबाद करने के लिए जैसे ही गर्दन घुमाई तो देखा, जीती दौड़ती हुई मेरे पीछे आ रही थी। न उसने कोटी पहन रखी थी, न शॉल ले रखा था और पैरों में जूती भी नहीं थी। कृष्ण की प्रीत में वैरागिन हुई मीरा जैसा जीती ने भेष धारण कर रखा था। उसके हाथ में मेरी हॉकी थी जो मैं उनके घर में ही भूल आया था।
ज्यों ज्यों वह मेरे करीब आ रही थी, त्यों त्यों उसके कदमों की रफ्तार कम होती जा रही थी। उसके सुलगते जोबन को देखकर यूँ लगता था मानो परमात्मा ने सृष्टि की सारी सुंदरता जीती को बनाने पर ही खर्च कर दी हो।
“हॉकी तो तुम यही छोड़े जा रहे थे राजू।“ वह हाँफ रही थी। उसने हॉकी मुझे पकड़ाने के लिए आगे बढ़ाई थी। मेरे मन में ख़याल उपजा था कि क्या वाकई वह हॉकी पकड़ाने आई थी या मुझसे मिलने ?
‘सौ फीसदी तुझे मिलने आई है। इतना भी नहीं समझता ? गोली मारो उस आशिक को जो आँख का इशारा भी नहीं समझे। यह अवसर हाथ से खाली न जाए।’ मेरे अंदर से लुच्चा राजू बोला था। मेरे हाथ जीती को लपेटे में लेने को बेचैन थे।
‘यह क्या करने चला है ? तू तो उसका रक्षक बनकर आया था। यही गुल खिलाना था तो उसकी नज़रों में भद्रपुरुष बनने की क्या ज़रूरत थी ?’ किसी दैविक शक्ति ने मुझे रोक लिया था। मेरे अंदर के इन्सान और हैवान आपस में गुत्थमगुथा हो रहे थे। ‘तेरी खातिर वह हॉकी के बहाने से आई है, सूखी न जाए। बांहों में कस ले। हाथ टूटे हैं तेरे ?’ मेरे अंदर का हैवान मुझे उकसा रहा था।
‘नहीं पगले, बाड़ भी कभी खेत को खाती है ?’ मेरी अंतरात्मा उपदेश दे रही थी।
‘गरीबों की लड़कियों को ईश्वर इसीलिए सुंदर बनाता है कि वे अमीरों के भोगविलास के काम आ सकें।’ मेरी रगों में दौड़ता सामंतवादी खून उछाले मार रहा था।
‘बेटियाँ-बहनें सबकी साझी होती हैं।’ मेरे ज़मीर ने मुझे ललकारा था।
मेरे अंदर विरोधी विचारों का परस्पर संग्राम होता रहा। 
‘चक्क दे फट्टे ! मर्द बन, मर्द !’ मेरे अंदर का जमींदार गरजा था।
‘पैसा, इज्ज़त और नेकी कमाने को बरस लग जाते हैं। गंवाने में एक पल नहीं लगता। अक्ल कर।’ मेरे वजूद में नेकी और बदी की जंग जारी थी कि वह हॉकी मेरे सुपुर्द करके वापस लौटने के लिए घूमी थी। मेरी तरफ उसकी पीठ थी। औरत को सामने की अपेक्षा पीछे से आलिंगन में लेने में अधिक आनंद आता है। उसका सिर्फ़ आनंद लिया जा सकता है, बयान नहीं किया जा सकता। मेरी काम-भूख शिखरों पर पहुँची हुई थी जिस वजह से मेरे अंगों में असीम तनाव उत्पन्न हो चुका था। मैं खता करने पर तुला हुआ था। कामसूत्र में भी लिखा है कि ‘शीघ्र उŸोजित करने के लिए औरत को गर्दन पर से चूमना चाहिए।’
जीती की बोतल जैसी गर्दन पीछे से चूमने के लिए मैंने कदम उसकी ओर बढ़ाये ही थे कि जीती रुक गई थी। उसको जैसे अचानक कुछ याद हो आया था। मैं जस का तस खड़ा हो गया। जीती बोली थी, “राजू वीरे... मुझे लगता है, मैं गैस का रैगूलेटर बंद करना भूल गई। सिलेंडर देखकर बंद देना।’
मेरे कानों में आंधी तूफानों का शोर मचने लगा। ‘राजू वीरे !’ ‘राजू वीरे !’ गूंजने लगा। मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था। मैंने पुष्टि के लिए पूछा, “क्या कहा तूने ?“
वह बड़े धैर्य से बताने लगी, ‘मैंने कहा, मैं शायद गैस का रैगूलेटर बंद करना भूल गई। तुम ज़रा देख लेना, खुला हो तो बंद कर देना।“
“नहीं, इससे पहले भी कुछ और कहा था ?“ मैं भ्रम से मुक्त होना चाहता था।
“और तो कुछ नहीं। कुछ भी तो नहीं।“ मुझे लगा, मेरे कानों ने ही मुझे धोखा दिया था।
“अच्छा, मेरे चंगे वीर ! ध्यान से जाना। रास्ते में कूकरों से सावधान रहना। ये हॉकी तेरे काम आएगी।“ कहते हुए मुस्कराई थी। जीती की मांसपेशियों में कोई ऐंठन, कोई खिंचाव नहीं था। 
जीती मुड़ गई थी। मैं कुछ देर उसे जाता हुआ देखता रहा। फिर अपनी राह हो लिया। मेरे हाथ में हॉकी थी। मेरे हाथ उसे सहला रहे थे। हॉकी पर जीती के हाथों की छुअन को जैसे मेरी उंगलियाँ महसूस कर रही थीं। यह हॉकी राह के आवारा कुŸाों से तो मुझे बचा सकती थी, पर मेरे अपने अंदर सुबह से न जाने कितने कूकर उछल-कूद मचाये थे। मैं मन ही मन बुदबुदाया था, ‘काश ! तू पहले ही ‘वीरे’ शब्द की सोटी मारकर मेरे अंदर बैठे हवस के इन कूकरों को भगा देती तो...।’   
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