मोरां का महाराजा
-बलराज स्र्र्र्रिधु Balraj Sidhu
भूमिकाः- जब हमारे इतिहासकार व लेखक शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह का जिक्र करते हैं तो वे अपनी बात महाराजा के शीश पर झूलने वाले आलीशान छत्र से शुरू करते हुये, उसकी पगड़ी की खूबसूरती बढाने वाली कीमती कलगी पर आ जाते हैं। उसके बाद जब वे महाराजा के चेहरे पर आते हैं तो उसकी खराब आंख व चेचक के दागों को छिपाने के लिये अपनी भावुकता भरपूर दलीलें देना शुरू कर देते हैं। वे महराजा की नेक दिल होने की बात तो करते है। लेकिन उसके द्वारा की गई धक्केशाहीयों को अनदेखी करने के लिये अपनी दोनों आंखे बंद करके उन पर हाथ रख लेते हैं फिर उसकी इज्जत को चार चांद लगाने वाली पगड़ी की ओर देखते हुये महाराजा की राजनीतिक सूझ-बूझ, निपुनता, दूरअंदेशी तथा चुस्त दिमाग की तारीफों के पुल चीन की दीवार से भी उंचे निर्मित कर देते हैं। उसके बाद वे महाराजा रणजीत सिंह की अनेक विजय प्राप्तीयों व उसके अधिकार में लिये विशाल रियासती इलाके की वाह-वाह करते हुये उसके सीने के जोर की उपमा करते हैं। महाराजा के बाजूओं की ताकत का विवरण देने के लिये वे उस नायाब कोहिनूर हीरे का वर्णन करते है। जो जिस तरह से उसने प्राप्त किया था, उसी तरह उससे छीन लिया गया। इसके बाद नीचे उतरते
समय महाराजा की कमर से लटकती मंहगे हीरों से जड़ी फौलादी तलवार की वाह-वाह शुरू हो जाती है। इस विवरण के बाद हमारे साहित्यकारों व इतिहासकारों की कलम महाराजा के कमरबंद पर ही दम तोड़ देती है। इस तरह के लेखकोप् की रचनाओं को पढते समय एक तीक्ष्ण बुद्वि वाले इंसान व साहित्य चिंतक को र्सिफ अंधी श्रद्वा के और कुछ भी नजर नही आता। महाराजा की जिंदगी के बहुत सारे पक्ष ऐसे है जिन पर गौर नही किया गया, जिनमें उनकी मर्दानगी व चरित्र की सही तस्वीर झलकती है। सिक्ख बुद्विजीवीयों के द्वारा उन पर पर्दा डाल दिया जाता है या उनके बारे में खामोशी धारण कर ली जाती है। यह इतिहास के साथ सरासर बेइंसाफी है। इस तरह लगता है कि हमारे सूझवान विद्वानो को जिंदगी में सैक्स के महत्व का बिल्कुल भी ज्ञान नही है। महाराजा ने अपनी जिंदगी में बेशुमार औरतों का उपभोग किया। उसके हरम में बेअंत रानीयों व बेअंत दासीयों का बहुमूल्य खजाना था, जिनके बारे में विवरण प्राप्त होते है। इसके अलावा उसके वन नाईट स्टैंड़ अर्थात गाहे-बगाहे महाराजा ने कहां-कहां मुंह-मारा होगा या जिनके बारे में लिखित में कुछ नही मिलता, शायद उनकी सूची कितनी लम्बी होगी। अलग-अलग इतिहासकारों ने रानीयों व दासीयों की संख्या व नाम अलग-अलग बताये हैं। मेरे विचार अनुसार अगर महाराजा के जीवन में यह पक्ष शामिल न होता तो शायद उसे इतिहास में वो मुकाम हासिल न हो पाता जो रूतबा उसका आज है तथा न ही उसने इतना विशाल राज्य स्थापित कर पाना था वर्णन योेेग्य है कि उसने हमेशा ताकत बढाने व युद्व जीतने के लिये स्त्रियों का इस्तेमाल किया अगर महाराजा रणजीत सिंह पंजाब व सिख इतिहास का अभिन्न अंग है तो मोरां भी उसके साथ है। मोरां एक बाजारू नृतकी थी, जिसने ता-उम्र महाराजा को अपनी अंगुलीयों के इशारो पर नचाया। महाराजा की कमर से उपर की शक्ति की बहुत तारीफें हो चुकी है। अब समय है कि शेर-ए-पंजाब के कमरबंद से नीचे की कोई बात करे, पर कौन? कोई हिम्मत करे या न करे, लेकिन मैं निधड़क, बेखौफ व बेबाकी के साथ उसकी कमर से नीचे की ताकत को बयान करते हुये महाराजा के मोरां के साथ खौलते इश्क पर एक नजर ड़ालती ये कहानी ष्मोरां का महाराजाष् पेश कर रहा हूं। इतिहास पर आधारित ये कहानी न तो पूर्ण रूप से गल्प रचना है तथा न ही यह अफसाना निरोल इतिहास है। अपनी रचना को दिलचस्प बनाने के लिये यहां मुझे महसूस हुया जरूरत अनुसार मैने कुछ तब्दीलियां कर ली हैं। पात्र, घटनाक्रम व काल से छेड़-छाड़ करते हुए मैने इस बात का पूरा ख्याल रखा है कि किसी भी इतिहासिक तथ्य का चेहरा न बिगड़े इसमें मेरी कला व कल्पना की प्रत्यक्ष घुसपैठ है। यह कहानी लिखने के पीछे मेरा मकसद महाराजा की छवि को बिगाड़ाना या उसको नीचा दिखाना नहीं है बल्कि महाराजा की जिंदगी के अंधेरे पक्ष पर रोशनी डालना है।
समय महाराजा की कमर से लटकती मंहगे हीरों से जड़ी फौलादी तलवार की वाह-वाह शुरू हो जाती है। इस विवरण के बाद हमारे साहित्यकारों व इतिहासकारों की कलम महाराजा के कमरबंद पर ही दम तोड़ देती है। इस तरह के लेखकोप् की रचनाओं को पढते समय एक तीक्ष्ण बुद्वि वाले इंसान व साहित्य चिंतक को र्सिफ अंधी श्रद्वा के और कुछ भी नजर नही आता। महाराजा की जिंदगी के बहुत सारे पक्ष ऐसे है जिन पर गौर नही किया गया, जिनमें उनकी मर्दानगी व चरित्र की सही तस्वीर झलकती है। सिक्ख बुद्विजीवीयों के द्वारा उन पर पर्दा डाल दिया जाता है या उनके बारे में खामोशी धारण कर ली जाती है। यह इतिहास के साथ सरासर बेइंसाफी है। इस तरह लगता है कि हमारे सूझवान विद्वानो को जिंदगी में सैक्स के महत्व का बिल्कुल भी ज्ञान नही है। महाराजा ने अपनी जिंदगी में बेशुमार औरतों का उपभोग किया। उसके हरम में बेअंत रानीयों व बेअंत दासीयों का बहुमूल्य खजाना था, जिनके बारे में विवरण प्राप्त होते है। इसके अलावा उसके वन नाईट स्टैंड़ अर्थात गाहे-बगाहे महाराजा ने कहां-कहां मुंह-मारा होगा या जिनके बारे में लिखित में कुछ नही मिलता, शायद उनकी सूची कितनी लम्बी होगी। अलग-अलग इतिहासकारों ने रानीयों व दासीयों की संख्या व नाम अलग-अलग बताये हैं। मेरे विचार अनुसार अगर महाराजा के जीवन में यह पक्ष शामिल न होता तो शायद उसे इतिहास में वो मुकाम हासिल न हो पाता जो रूतबा उसका आज है तथा न ही उसने इतना विशाल राज्य स्थापित कर पाना था वर्णन योेेग्य है कि उसने हमेशा ताकत बढाने व युद्व जीतने के लिये स्त्रियों का इस्तेमाल किया अगर महाराजा रणजीत सिंह पंजाब व सिख इतिहास का अभिन्न अंग है तो मोरां भी उसके साथ है। मोरां एक बाजारू नृतकी थी, जिसने ता-उम्र महाराजा को अपनी अंगुलीयों के इशारो पर नचाया। महाराजा की कमर से उपर की शक्ति की बहुत तारीफें हो चुकी है। अब समय है कि शेर-ए-पंजाब के कमरबंद से नीचे की कोई बात करे, पर कौन? कोई हिम्मत करे या न करे, लेकिन मैं निधड़क, बेखौफ व बेबाकी के साथ उसकी कमर से नीचे की ताकत को बयान करते हुये महाराजा के मोरां के साथ खौलते इश्क पर एक नजर ड़ालती ये कहानी ष्मोरां का महाराजाष् पेश कर रहा हूं। इतिहास पर आधारित ये कहानी न तो पूर्ण रूप से गल्प रचना है तथा न ही यह अफसाना निरोल इतिहास है। अपनी रचना को दिलचस्प बनाने के लिये यहां मुझे महसूस हुया जरूरत अनुसार मैने कुछ तब्दीलियां कर ली हैं। पात्र, घटनाक्रम व काल से छेड़-छाड़ करते हुए मैने इस बात का पूरा ख्याल रखा है कि किसी भी इतिहासिक तथ्य का चेहरा न बिगड़े इसमें मेरी कला व कल्पना की प्रत्यक्ष घुसपैठ है। यह कहानी लिखने के पीछे मेरा मकसद महाराजा की छवि को बिगाड़ाना या उसको नीचा दिखाना नहीं है बल्कि महाराजा की जिंदगी के अंधेरे पक्ष पर रोशनी डालना है।
बलवीर कंवल जी की खोज को नतमस्तक होते हुये, मेरी यह कहानी उस्ताद कहानीकार श्री मनमोहन बावा जी को समर्पित है, जिनके पद चिन्हों पर पैर रखकर चलने का यह तुच्छ सा यत्न है,
पंच भागो में विभाजित इस कहानी को छापने के इच्छुक संस्थानो को पूरी कहानी उनकी मन इच्छित थ्व्छज् में म्.ड।प्स् किया जा सकता है। हमारे सभी सम्पर्क भ्व्डम् च्।ळम् पर दिये गये है।
मोरां का महाराजा
सूर्य देव दूर पश्चिम में डूबने लगा ही है, रावी नदी के किनारे बसे लाहौर की हीरा मंड़ी दस्तूर के मुताबिक रंगीन रात की तैयारी में जुटी हुई है। तीन घुड़सवार मंडी की गश्त कर रहे हैं। भेष-भूसा व वस्त्रों से देखने पर वे सौदागर प्रतीत होते है। उनमें से एक घुड़सवार के सूफीयाना पहनावा व दाड़ी है। दूसरे के खुली दाड़ी व बाल खुले छोड़कर पगड़ी बांधी हुई है। तीसरा जिसकी लम्बी दाड़ी व ऐंठदार मूंछे है। वह उनका सरदार लगता है। उसने सिर पर बेतरतीबी ढंग से पगड़ी बांधी हुई है तथा पगड़ी का एक पल्लू ख्ुाला छोड़कर अपनी एक आंख को छिपा रखा है, यह बांई आंख बचपन में चेचक की बिमारी से चली गई थी। चेहरे पर चेचक के दागों की तो वह ज्यादा परवाह नही करता। लेकिन आंख उसे निःसंदेह बहुत प्रभावित व दुःखी करती है। तीनो मंड़ी के बीच में आकर कुछ विचार-विर्मश कर रहे होते हैं कि पास के कोठे से एक कंजरी ;वेश्याद्ध गीले बाल कपड़े के साथ झटककर छत की दिवार पर बैठकर सुखाने लगती हैं। गीले बालों के छींटे पड़ने पर तीनों घुड़सवार उपर मुंड़ेर की ओर देखने लगते हैं कानी आंख वाले घुड़सवार की नजर उस कंजरी ;वेश्याद्ध पर ऐसी अठकती है कि वह आंखे झपकना भूल जाता है। वह अपनी कमर से बंधी सुराही का ढक्कन खोलकर सूखी शराब की गटागट तीन-चार घूंटे भरकर कडवाहट से निजात पाने के लिये ख्ंाघूरा ;जोर से खांसनाद्ध मारता है तथा अपने साथी से पूछता है कि हीरा मंड़ी का यह हीरा कौन है।
‘महाराज, यह मोरां कंचनी है। इसकी मां खुद अपने समय की मशहूर नृतकी थी तथा कई महाराजाओं की रखैल रह चुकी है। पहले ये अमृतसर के रंड़ी बाजार में नाचा करती थी अभी-अभी लाहौर आयी है’ सूफीयाना लिबास वाला कहता है। खराब आंख वाले को आश्चर्य होता है, ‘यह अमृतसर में थी तथा हमें पता भी नही चला’।
‘‘महाराज, ये कंवर खड़कसिंह के जन्म के जश्नों में भी शामिल थी। आपने उस समय नशे में होने के कारण तवज्जों नही दी होगी। हां, मुझे याद आया, आप कुछ साल पहले इसका मुजरा देख चुके है। उस समय यह मुश्किल से बारह-तेरह साल की थी। भूल गये लखनऊ की वह महफिल ............घ्ष्
डन्श्रत्।
खराब आंख वाला अपनी याददाश्त पर जोर डालता है उसे याद आता है कि लखनऊ के नवाबों की एक महफिल में उसने कमसिन सी एक लड़की के नृत्य से प्रसन्न होकर पैसों की बरसात कर दी थी। अगर उसने उस समय जंग की तैयारी न करनी होती तो उस बाल नृतकी को उसी समय उठा लाना था। ‘‘ओह, हां हां याद आया, क्या ये वही है?’’
‘‘हां, हजूर, अब तो काफी निखार आ गया है इस पर’’ साथ वाला खुले बालों वाला साथी कानी ;खराबद्ध आंख वाले को कहता है। खराब आंख वाला अपनी कमर से बंधी सिक्कों की थैली खोलकर अपने साथी की ओर जोर से फैंकता है। उसका साथी जैसे ही थैली पकड़ता है तो खराब आंख वाला घुड़सवार हुक्म करता है कि, ‘‘गुलाब सिंह, उठा लाओ, आज से ये र्सिफ लाहौर दरबार में ही मुजरा करेगी।’’
उसके दोनो साथी मंद-मंद मुस्कराते है तथा तीसरा सूफीयाना लिबास वाला साथी बोलता है ‘‘महाराज, जो सप्ताह पहले चम्बे से लक्ष्मी देवी उठाकर लाई गई थी, उसका क्या होगा?’’
‘‘अजाज-उद-दीन, उसका क्या है? वह तो मेरे हरम में है, लेकिन यह नायाब हीरा मुझसे बरदाश्त नही होता, तुम लोग तो जानते हो रणजीत सिंह उत्तम नस्ल की शिकारी कुत्ती, फुर्तीली घोड़ी व सुन्दर स्त्री किसी और के पास रहने नही देता’’ महाराजा रणजीत सिंह की इकलौती आंख मोरां पर एकाग्र हुई रहती है।
फकीर अजाज-उद-दीन मजाकीया लहजे में बोलता है, ‘‘महाराज, आप अपनी हरकतों से बाज नही आयेगें। ये काम हो जायेगा। हम जल्दी काम निपटायें व वापस महल को चलें’’।
‘‘नही आज और कुछ नही करना। ये शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह पुत्र महा सिंह का हुक्म है। इसे अभी उठाकर लाओ। मैने घोड़े पर अपने साथ बिठाकर ले जानी है, आज की रात के सारे काम खारिज’’ इतना कहते महाराजा ने हाथ में पकड़ी सुराही फिर अपने मुंह को लगा ली। उसमें शराब की एक भी बूंद नही है। इस तरह देखकर ड़ोगरे गुलाब सिंह ने अपनी सुराही महाराजा के हवाले कर दी। महाराजा एक ही सांस में बड़े-बड़े घूंटों से शराब की आधी सुराही खाली कर देता है तथा गुुलाब सिंह की ओर देखता है’’।
‘‘महाराज आप महल चलें, दातार कौर ;रानी राज कौर जिसका नाम महाराज ने बदलकर दातार कौर कर दिया था क्योंकि राज कौर उसकी माता का भी नाम थाद्ध आपका इंतजार कर रही होगी’’ मैं इसे आधी रात को किले की पिछली तरफ से लाकर आपको पेश करता हूं’’ ष्हां, यह ठीक रहेगा। इससे लाहौर सरकार की बदनामी भी नही होगी’’। फकीर अजाज-उद-दीन उसकी हां में हां मिलाता है। छत पर खड़ी मोरां की अचानक नजर रणजीत सिंह से मिलती है तो उसकी आंख में आंख ड़ालकर सिर को झटककर उसे उपर आने का इशारा करती है। फिर हंसकर अंदर दौड़ जाती है।
‘‘हाये, मैं मर जावां, अफगानी तीर की तरह धंस गई’’ रणजीत सिंह कलेजे पर हाथ रखकर दांत पीसता हुया कहता है।
वहां से वे चलने ही वाले होते है कि गौस खान आ जाता है,‘‘सिंह साहब, मैं दाना मण्ड़ी से आ रहा हूं, व्यापारियों ने अनाज की कमी को देखते हुये अनाज की कीमतें बढा दी है’’ सारी प्रजा मंहगाई के कारण त्राही-त्राही कर रही है’’ ‘‘ठीक है, कल से शाही अनाज-भंड़ारो के मुंह खोलकर सारा अनाज गरीबों में बांट दिया जाये। व्यापारियों की अक्ल अपने आप ठिकाने पर आ जायेगी’’ महाराजा रणजीत सिंह मौके पर ही अपना फैसला सुना देता है।
चारो घुड़सवार अंधेरे को चीरते हुए शाही किले की ओर रवाना हो जाते है ।
च्।त्ज्-2 मोरां का महाराजा-
रात जैसे-जैसे आगे बढती जाती है वैसे वैसे रणजीत सिंह की बेताबी में भी इजाफा होता जाता है। उसे एक तोड़ ़़़........ एक बैचेनी सी लगी हुई है। ऐसा पहले कभी नही हुआ है। उसके हरम में एक से बढकर एक अनेक रानीयां हैं। सुन्दर औरत देखकर अक्सर महाराजा हलका सा जाता है तथा अपनी मनपंसद औरत को झट से अपने हरम की शान बना लेता है। इस मकसद की पूर्ती के लिये पहले वह अपनी दौलत का सहारा लेता है अगर दौलत से बात न बने तो वह अपनी ताकत का इस्तेमाल करता है।
आज दातार कौर व महताब कौर का हुस्न महाराजा को फीका-फीका प्रतीत होता है। उसकी आंख के सामने तो बिल्ली जैसी आंखो वाली, सुन्दर गोरी व पतली खूबसूरत शरीर वाली तथा अपनी उम्र से दस-ग्यारह साल छोटी मोरां कंचनी मंड़रा रही है। तड़फ व बैचेनी से महाराजा और भी व्याकुल हो जाता है ............
रात आधी गुजर चुकी है। पिछले एक घंटे में महाराजा कम से कम पचास बार अपने वस्त्रों पर इत्र लगा चुका है। बेजारी में कमरे के एक कोने से दूसरे कोने तक चक्कर लगाते हुये, अचानक महाराजा की नजर अपनी हथेलीयों पर चली जाती है। हर समय तलवार के हत्थे पर रहने से उसके हाथ सख्त हो गये है। हाथो में बिवाई फटने लग गई है। वह केवल छः साल का था जब म्यान से तलवार खींचनी शुरू कर दी थी। महाराजा ने चमेली का तेल हाथों को लगाया व जस्ता लेकर बिवाईयों को भरने लग गया। ऐसा करते हुये वह बीच-बीच में कंगनी वाले गिलास में भरकर विदेशी शराब मुंह लगाकर पी लेता, जो उसे कंपनी के एक फिंरगी जनरल वेन्तूरा ;जो बाद में महाराजा के पास भर्ती हो गया थाद्ध ने फ्रांस से तोहफे के तौर पर लाकर दी है, मोरां के इंतजार में महाराजा जाम-दर-जाम पीता गया ................. रात गहरी होती गई ............. महाराजा मदहोश होकर जरनिगार ;सोने चांदी जड़ीद्ध कुर्सी पर ही सो गया ..................।
सुबह का सूरज निकल आया है लेकिन मोरां नहीं आयी। उसने लाहौर तख्त की गुलामी कबूलने से इंकार कर दिया, बाद दोपहर जब रणजीत सिंह को होश आती है तो वह मोरां ......... मोरां............. की आवाजें देना शुरू करने लग जाता है। उसकी आवाजें सुनकर सब अहलकार इक्ट्ठे हो जाते हैं तथा वे महराजा को मोरां के इंकार की जानकारी देते हैं। यह सुनकर महराजा गुस्से में आ जाता है, उसका चेहरा एकदम से तप कर लाल हो जाता है। ‘‘तुम लोगो ने उसे बताया नही कि लाहौर सरकार ने याद किया है? ...... शेर-ए-पंजाब रणजीत सिंह ने बुलाया है? इस नाफरमानी ;हुक्म अदूलीद्ध का नतीजा जानती है वह?
‘‘हां, सरकार उसे सरकार की ताकत की पूरी पूरी जानकारी है, साखे खान बोला। ‘‘नहीं, उसे मेरी ताकत का कोई अंदाजा नहीं है, अंदाजा होता तो सिर के बल दौड़ी चली आती, उसने अभी मेरे हाथ नही देखे, मैं पंजाब सहित सारा लाहौर फूंक दूंगा। मुझे मोरां चाहिये, मोरां, आई समझ में? आवेश में आकर महाराजा रणजीत सिंह अपनी स्वर्ण जडि़त कुर्सी के हत्थे पर मुक्के मारने लग पड़ा।
दरबार में सबसे पीछे खड़ा गुलाब सिंह आगे आते हुये बोला, ‘‘महाराज, धीरज रखें, कुछ समय और दें, काम हो जायेगा’’ यह समय ही तो होता है जिसकी मेरे पास कमी रहती है तथा मुझे हर अहम काम करने के लिये समय निकालना पड़ता है ............ इसकी मां को .......... एक कंजरी की इतनी जुर्रत कि लाहौर सरकार की हुक्म अदूली करे ................ घोड़े व लश्कर तैयार करो, मैं अभी उठाकर लाता हूं उसे, वो भी क्या याद रखेगी कि शुक््रचक्कीया मिसल के चड़त सिंह का पोता आया है ............ बुर्रा .............. मिसर लाल सिंह मौका संभालते हुये नीम-शराबी महाराजा को आगे बढकर एक और जाम पकड़ाता है। महाराजा एक ही सांस में शराब खींच जाता है। ताजा जाम के साथ मिलकर रात वाली शराब फिर जोर मारती है तथा महाराजा फिर से बेसुध हो जाता है।
मदहोशी की हालत में भी महाराजा ‘‘मोरां ...... मोरां...........मोरां’’ के नाम को रटता है। कुछ समय बाद जब महाराजा फिर से होश में आता है तो वह दहाड़ कर अपने जनरलों को कहता है कि ‘‘मेरे चेहरे पर क्या फूल लगे हुये है........ खड़े-खड़े क्या देख रहे हो? नही तो नलवे को बुलाऊं फिर?.............. नही, नलवे ने नही मानना इस काम के लिये......... जाओ मोरां कंचनी अभी मेरी गोद में होनी चाहिये, नही तो सभी को तोप से बांधकर उड़ा दूंगा’’
इतना सुनकर सभी दरबारी ड़र जाते है। क्योंकि वे यह सच्चाई जानते है कि जब महाराजा सोफी ;नशा रहितद्ध होता है तो दुनियां में उससे अच्छा आदमी कोई नही है। लेकिन जब शराबी होता है तब उस से बुरा आदमी भी कोई नही है।
ड़रे हुये से खड़े नौकरों ;खादिमोंद्ध को देखकर महाराजा गरजता है ‘‘मर्हूत निकलवाऊं या ढोल नगारे बजवाऊं ? ........... फिर जाओगे, जाओ दौड़कर जाओ, अभी मोरां कंचनी चाहिये............हाये मोरां.......... दरबार की दिवारों व छतों को चीरती महाराजा की आवाज मिले से बाहर तक गूंजती है। महाराजा की ललकार सुनकर सेवादार और भी भयभीत हो जाते है। घुड़सवारी, शिकार, व्यभिाचार व शराबनोशी महाराजा की सब से बड़ी कमजोरियां रही है। मनचाही हसीना हासिल करने के लिये तो वह युद्व लड़ने से भी गुरेज नही करता, लेकिन ऐसा पहली बार हुया है कि वह किसी औरत के लिये इस तरह पागल हुया हो। सभा में उपस्थित यतर सिंह, दिवान दीना नाथ, ड़ोगरा सुचेत सिंह व रणजोध सिंह मजीठीया जैसे समझदार ओहदेदार को यह भविष्य में आने वाले किसी संकट का सूचक लगा। इसकी सबसे ज्यादा चिंता महाराजा के वफादार जनरलों को तोड़-तोड़ कर खाने लगी। सिर्फ ध्यान सिंह व उसके भाई गुलाब सिंह को छोड़कर महाराजा की मोरां को लेकर ऐसी हालत देखकर डोगरे भाईयों के चेहरे पर मुस्कराहट आ गई। ध्यान सिंह ने मौका सम्भालते हुये उसी समय महाराजा के सामने मेज पर पड़ी सुराही में से एक और जाम भरा व महाराजा को पेश करते हुये कहा, ‘‘महाराज, छोटी मुंह बड़ी बात, अगर आप हुक्म करें तो मोरां से मैं बात करके देखूं? मैं हजूर की तारीफो के ऐसे पुल बांधूगां कि जमजमा तोप ;अहमदशाह दुरानी के आदेश पर वजीर शाहवली ने 1760 ई में ज्यादा दूरी पर मार करने वाली यह विशेष तोप बनाई गई थीद्ध के गोले की तरह सीधी आपके चरणों मे आ गिरेगी‘‘
‘‘हां, हां, ध्यान सिंह इस काम के लिये तुम ही मुझे सबसे काबिल लगते हो। तुम इस काम में माहिर हो, तुम मेरे हरम का सही ध्यान रखते हो। मैं तुझे मनोरंजन मंत्री ही न बना दूं? फटाफट कर मेरी तो मोरां के बिना जान ही निकलती जा रही है। इस काम के लिये सारे शाही खजाने के मुंह खुले है। शाही फौजें तेरे एक इशारे पर सब तहस-नहस कर देगी। जो चाहिये लेले, पर आज रात को मोरां मेरी बांहों मे होनी चाहिये, नही तो सुबह किले की बुर्जी मे लिजाकर तेरा सिर कलम कर दूंगा तथा उसे सलामी दरवाजे पर चीलों के खाने के लिये टांग दूंगा, आई बात समझ में?’’
इस धमकी को सुनकर ध्यान सिंह का गला सूखने लग गया। कुछ पल पहले दिमाग में बनाई योजना एकदम से छू-मंतर हो गई। उसे सिर्फ किले की बुलंद बुर्जी, हीरों से जड़ी म्यान वाली रणजीत सिंह की तलवार तथा अपना गला दिखने लगा। आंखों के आगे तारे नाचने लगे। चेहरा पीला पड़ गया। उसका सिर चकराने लगा। उसे अपनी बोलने के लिये की गई पहल कदमी पर पछतावा होने लगा। वह मन ही मन अपने आपको कोसने लगा बाकी जनरलों की तरह वह भी तो आंखे नीची करके चुप खड़ा रह सकता था............ क्या जरूरत थी उसे मधुमक्खीयों के छत्ते में हाथ ड़ालने की? ध्यान सिंह का मन करे कि वह अपने मुंह पर खुद चपत लगाये उसके पीछे खड़े उसके भाई गुलाब सिंह ने जब उसके कंधे पर हाथ रखा तो घ्यान सिंह को कुछ हौसला हुया।
‘‘मेरा ख्याल है कि महाराजा को अब आराम की जरूरत है। महाराज...............’’ रणजीत सिंह के निजी सुरक्षाकर्मीयों ने उसे बांहो का सहारा देकर आगे चलाया तथा लड़खड़ाते हुये रणजीत सिंह को आरामगाह में लिटा आये।
घोड़ी पर सवार होकर ध्यान सिंह किले से बाहर इस तरह मुँह लटकाकर निकला जैसे अभी बेटी को मिट्टी में दबाकर आया हो। उसके अंदर चल रहे द्वंद युद्व के बारे में जैसे उसकी काबुली घोड़ी भी जान चुकी थी। इसलिये उसकी चाल भी बहुत धीमी हो गई है। किले से बाहर आकर ध्यान सिंह ने सुरक्षा बुर्जी की ओर देखा तथा फिर अपनी गर्दन को हाथ लगाकर उसके सही सलामत होने का यकीन अपने आप को दिलाया। ध्यान सिंह को अपनी जान शिंकजे में फंसी महसूस हुई। एक पल के लिये उसके मन में विचार आया कि वह रणजीत सिंह की रियासत से दूर चला जाये। ‘‘पर कहां? दूर जम्मू अपने गांव डि़ओली, नही मैसूर.......... हैदराबाद के निजाम बहादुर तो जरूर अपने साये में उसे छिपा लेगें......... नही, वह शेर-ए-पंजाब के साथ दुश्मनी क्यों मोल लेगें? उन्हे रणजीत सिंह की ताकत का अंदाजा है.......... फिंरगी सरकार तो मुझे जरूर पनाह दे देगी..........नही, ईस्ट इंडि़या कंपनी तो मेरे द्वारा खुद रणजीत सिंह से समझोते व संधीयां करने को तैयार है। रणजीत सिंह तो शायद मुझे बख्श दे, कम्पनी हरगिज मुझे माफ नही करेगी। इसके साथ ही मेरी पंजाब पर शासन करने की इच्छा मिट्टी में मिल जायेगी...........।’’ इस तरह अपने ही प्रश्नों का जवाब देता हुया ध्यान सिंह किले से काफी दूर आ गया।
बाहर आकर ध्यान सिंह ने पीछे मुड़कर किले की ओर देखा। किले की दीवारों के छेद में से दिख रही तोपे देखकर तो वह और भी भयभीत हो गया। ध्यान सिंह तोपखाने की तोपों की गिनती बाखूबी जानता है। उसे महसूस हुया कि सभी 288 तोपों के मुंह से बांधकर उसे उड़ाया जा रहा है। उसी समय बादशाही मस्जिद में नमाज पढने जा रहा मजहर अली तेजी से घोड़ा दौड़ता हुया ध्यान सिंह के पास से गुजरता हुया बोला, ‘‘ध्यान सिंह, अल्ला करे आप अपने मंसूबे में कामयाबी हासिल करें’’, ‘‘इंशा अल्ला, मुझे अपनी नमाज में याद रखना’’ ध्यान सिंह की बच्चे के रोने जैसी आवाज निकली। उसे लगा कि जैसे मजहर अली उसे शुभकामना नही बल्कि धमकी देकर गया हो। ध्यान सिंह ने घोड़े को एड़ लगाई तथा हीरा मंड़ी की ओर सीधा हो गया...............
रात का धुंधलका होते ही महाराजा को शराब की तल्ब हुई। उसने अपनी दासीयों तथा रानीयों को तैयार होकर जनानखाने के लीला गृह मे बुला लिया।
महाराजा अपनी दासीयों व रानीयों के झुरमुट के बीच बैठा शराब पी रहा है। रणजीत सिंह के एक तरफ रानी दातार कौर व दूसरी तरफ दासी रूप कुमारी उसे जफ्फी ड़ालकर बैठी है। महाराजा ने मेहताब कौर को अपनी गोद में लेने के लिये अभी अपनी बांहे उपर की ही थीं कि ध्यान सिंह महाराजा के पास सीधा जनानखाने में आ गया। पहरेदारों को यह विशेष हिदायत है कि ध्यान सिंह कभी भी बिना इजाजत महाराजा को मिल सकता है। महाराजा उस पर अंधा विश्वास इसलिये करता है क्योंकि महाराजा के लिये अययाशी के सारे इंतजाम ध्यान सिंह के द्वारा ही किये जाते है। ध्यान सिंह के बिना और किसी को भी इस तरह जनानखाने में आने की इजाजत नही है। महाराजा को दूसरे दरबारीयों ने कई बार ध्यान सिंह के महाराजा की दासीयों से शारीरिक संबधों के संकेत दिये है, लेकिन महाराजा किसी की कोई बात नही सुनता, ‘‘खबरदार, अगर किसी ने मुझे ध्यान सिंह के खिलाफ भड़काने की कोशिश की। मेरी चाहे एक आंख है, लेकिन मुझे लाहौर खड़े को दिल्ली दिखाई देती है। मैं नयनजला हूं ;जिसे आंखे बंद करके भी दिखाई देता हैद्ध इतनी प्रताड़ना सुनकर कर्मचारी खामोश हो जाते है। महाराजा ने ध्यान सिंह को भारी जागीरें बख्शने का वादा भी किया हुया है। ध्यान सिंह जैसे ही फतेह बुलाता है तो सब स्त्रियां महाराजा व ध्यान सिंह को अकेले छोड़कर दूसरे कमरे में चली जाती है।
‘‘हां, क्या समाचार है?’’ महाराजा गुस्से से बोला।
ध्यान सिंह झिझकता हुया सा जवाब देता है, ‘‘महाराज काम तो हो गया पर................,
‘‘हां.........? महाराज तेजी से बोला।
‘‘पर........।’’
महाराजा पंलग से उठकर खड़ा हो गया, ‘‘क्या पर, पर लगा रखी है। तू पर को काट तथा मुद्दे पर आ’’
‘‘मोरां आपके हरम मे आने को तैयार नही हुई। वह कहती है कि वह सौतनें बर्दाश्त नही कर सकती। महाराजा ने मुजरे का लुत्फ उठाना हैं तो दूसरे रजवाड़ों तथा रईसों की तरह उसके कोठे पर आये’’।
‘‘हैं, उसकी ये मजाल? उसकी बहन............., महाराजा का चेहरा गुस्से से तपकर लाल हो गया।
‘‘जाने को तो महाराज आप भेष बदलकर उसके कोठे पर भी जा सकते है,’’ पहले भी तो कई बार ऐसा किया है,’’
महाराज ने घ्यान सिंह को बीच में टोकते हुये कहा, ‘‘नही, बेइज्जती है इसमें मेरी............ उसे मेरे पास ही आना पड़ेगा...........सीधी तरह बंदी बनकर प्यार से आ जाये, नही तो सीने के जोर पर लेकर आऊगां’’।
ध्यान सिंह अपने सूखे होठों पर जीभ फेरकर बोला, ‘‘मुझे पता था सरकार यही कहेगें। इस बात का ध्यान रखते हुये मैने सब प्रबंध कर दिये है। इससे सांप भी मर जायेगा व लाठी भी नही टूटेगी’’
‘‘क्या मतलब है तुम्हारा? पहेलियां मत बुझाओ’’
‘‘इंतजाम कर आया हूं, महाराज, लाहौर के बाहर एक हवेली है। अभी पिछले हफते ही हम लोगों ने कुर्क की है’’ वारिस शाह लुकाईये जग कोलों, भावें अपना ही गुड़ खाइये जी, जो बात पर्दे से हो जाये उसके जैसी कोई बात नही होती। मैं मोरां को वहां हवेली में छोड़कर आया हूं तथा वह वहां पर सरकार की खिदमत में कोई कसर बाकी नही छोडे़गी। इस काम पर कुछ खर्च हुया है.............. अगर सरकार ख्ंाजानची को कहकर..........’’ ध्यान सिंह बोलता-बोलता अपना कान सहलाने लग पड़ा।
रणजीत सिंह ने अपने गले में से बहुमुल्य माला उतारकर ध्यान सिंह को देते हुये कहा कि, ‘‘खर्चे की परवाह न कर, मैं दिवान को कह दूंगा। तुझे मुंह मांगे इनाम मिलेगें। मैं जल्दी ही तुझे राजा की उपाधी से नवाजूगां, चलो चलें,’’
रणजीत सिंह को साथ लेकर ध्यान सिंह लाहौर से तीन-चार किलोमीटर दूर बगवानपुर के पीछे वाली पहाड़ी की ओर चल पड़ा। महाराजा के अंगरक्षक व दस-बारह सिपाहीयों का काफिला भी उनकी सुरक्षा के लिये उनके साथ है। उनके पीछे एक बग्गी में कुछ दासीयां भी है, जो ध्यान सिंह के कहने पर महाराजा ने खिदमतदारी करने के लिये साथ ले ली है।
हवेली पहंुचकर महाराजा के सिपाहीयों ने हवेली के चारो तरफ घेरा ड़ालकर पहरा देना शुरू कर दिया। महाराजा को बाहर इंतजार करने के लिये कहकर दासीयों के साथ सिर्फ ध्यान सिंह ने ही हवेली में प्रवेश किया।
ध्यान सिंह के ऐसा करने पर महाराजा की बेचैनी और बढ गई तथा उसे ध्यान सिंह पर गुस्सा आने लगा। वह मन ही मन ध्यान सिंह को गालीयां निकालने लगा, ‘‘ये साले ड़ोगरे अपने आप को चाणक्य की औलाद ही समझते है............’’ भूल गये इन्हे वे दिन जब मेरे पास तीन रूपये पर नौकरी करने लगे थे। ये तो मैं ही मेहरबान हो जाता हूं, वर्ना...........।
रणजीत सिंह इस तरह ध्यान सिंह को अपने मन में कोस ही रहा होता है कि इतने में ध्यान सिंह ने हवेली के दरवाजे पर आकर महाराजा को अंदर आने का इशारा किया। रणजीत सिंह घोड़े से उतरकर हवेली की ओर कमान से निकले तीर की तरह दौड़ा। विशाल हवेली के मेहमान कक्ष में दासीयों ने महाराजा को पंलग पर बिठाया। उस पर फूलों व केवड़े के इत्र की बारिश की। महाराजा ने सब दासीयों के मुंह को गौर से देखा। उसे किसी में से भी मोरां का चेहरा दिखाई नही दिया। महाराजा ने कमरे में चारो ओर नजर दौड़ाई। उसे चारो तरफ अंधेरा ही अंधेरा नजर आया। महाराजा अभी बोलने ही लगता है कि कमरे में एक और हसीन लड़की दाखिल हुई। महाराजा को लगा कि जैसे कमरे के अंदर प्रकाश ही प्रकाश हो गया होता है। नूर-ही-नूर। महाराजा के मुंह से अपने आप ही निकला, ‘‘मोरां! मेरी जान!! मेरां ने दायें हाथ की सारी जुड़ी हुई अंगुलीयों को माथे से लगाकर ‘सलाम’ अर्ज की। उतेजना के वश में होने के कारण महाराजा से उसे कोई जवाब नही दिया जा सका। महाराजा को यकीन ही नही हो रहा था कि मोरां उसके पास हैं। यह सब कुछ उसे एक सपना ही लग रहा है। महाराजा तो सारा आलम भूल गया है।
‘‘तख्लीया’’ ;एकांतद्ध कहकर मोरां ने सभी दासीयों को कमरे से बाहर भेज दिया। महाराजा के पास पंलग पर बैठकर मोरां ने उन्हे पान परोस कर दिया। फिर उनके बीच दो चार रस्मी तौर पर हाल-चाल पूछने जैसी बातें हुई। महाराजा ने मोरां के हुस्न की जो तारीफें की, उससे मोरां ने सहज ही अंदाजा लगा लिया कि महाराजा किस तरह उस पर लट्ठृ है। महाराजा को बचा-खुचा डं़क मारने के इरादे से मोरां उठकर खड़ी हो गई तथा कमरे का दरवाजा बंद करते हुये कहने लगी, ‘‘जहांपनाह की इजाजत हो तो मैं साजिंदों को बुलाकर अपनी कमर के झटके दिखाऊं?’’
‘‘ओह, रहने दो मोरां नाचने को, आज तुम धरती पर नही, मेरे दिल की सेज पर नाचोगी, तेरे रूप की चमक सीधी कलेजे में धंसती है, सहन नही होता मुझसे’’, महाराजा उठा तथा उसने मोरां को अपनी बाहों में उठा लिया। मोरां ने रणजीत सिंह के गले में बांहें ड़ालकर अपना मुंह आगे बढाया तथा अपने गुलाबी होठ महाराजा के होठों पर रख दिये। महाराजा के होठों ने मोरां के होठों को जोर से भींच लिया। मोरां को पलंग पर लिटाकर महाराजा उसे बार-बार चूमने लगा। महाराजा मोरां को इस तरह से टूटकर पड़ा जैसे वह किसी स्त्री से प्यार नही बल्कि अफगान फौजों से युद्व कर रहा हो। मोरां को चूमना छोड़कर महाराजा ने अपने अंग-वस्त्र को खोलने के लिये जैसे ही उठना चाहा। मोरां ने उसके गले में हाथ ड़ालकर महाराजा को वापिस अपने उपर खींच लिया। मोरां व महाराजा के वस्त्र कुछ दूर गलीचे पर गुत्थम-गुत्था हुये पड़े है........... सारे कमरे के सन्नाटे में दो किस्म की आवाजें गूंज रही है............ एक महाराजा की जोर-अजमाइश की......... दूसरी सरूर में आई हुई मोरां की........... कुछ देर बाद दोनों आवाजें आपस में मिलकर तसल्ली के संकेत प्रकट करते हुये एक नई व उंची धुन पैदा करती है......।
महाराजा के सीने से चिपकी हुई मोरां टांग के सहारे से रजाई खींचकर उपर तान लेती है। महाराजा को एक न सहने वाली व न कहने वाली खुशी हासिल होती है। ऐसी महान खुशी महाराजा को इससे पहले तब हुई थी जब उसने लाहौर किले पर अपनी जीत का निशान केसरी झंड़ा फहराया था। अगले दिन दोपहर तक मोरां व महाराजा काशमीरी रजाई में लेटे रहे। भूख लगने पर महाराजा ने उठकर अपने कपड़े पहने तथा मोरां भी अपने कपड़े लेकर हमाम की ओर चली गई।
महाराजा ने शाही बावर्चीयों को खाना मंगवाने का संदेश भेजकर अपने लिये बड़ा सा जाम बनाया। शराब पीते समय महाराजा की नजर बिस्तर पर रात के लताड़े हुये फूलों पर गई। शराब का आधा प्याला बीच में ही छोड़कर वह स्नान कर रही मोरां के पास गया तथा कपड़े उतारकर उसके साथ नहाने लग पड़ा। नहाने के बाद दासीयों ने मोरां व महाराजा को कपड़े पहनाकर तैयार किया। मोरां का रानीयों की तरह हार-श्रंगार किया गया। खाना खाते समय मोरां व महाराजा ने इक्ट्ठे शराब पी। दासीयां महाराजा के साथ छोटी-छोटी शरारतें करती रही। भोजन समाप्ती के बाद महाराजा ने मोरां के साथ आराम फरमाने की ताकीद करके आरामगाह का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। इसके बाद दरवाजा रात के भोजन के समय ख्ुाला व खाने के बाद दरवाजा फिर से बंद कर लिया गया............।
इस तरह पूरा एक महीना दरवाजा केवल खाना व शराब या कोई और जरूरी वस्तु लेने के लिये खुलता और फिर से बंद हो जाता रहा। महाराजा ने किसी भी व्यक्ति को मिलने से मनाही की ताकीद करदी है। सिर्फ हर तीन दिन बाद फकीर अजाज-उद-दीन महाराजा को मिलकर जाता है। वह भी महाराजा को कोई दवाई ;मर्दाना ताकत बढाने की औषधीद्ध देकर चला जाता है, जिसे महाराजा शराब में घोलकर पीता है।
पूरे एक महीने के बाद महाराजा मोरां से विदा लेकर शाही काम निपटाने व राज प्रंबधों का जायजा लेने के लिये किले में गया लेकिन वहां पर उसका ज्यादा दिल नही लगा। रात को रानीयां व दासीयांे के साथ भी उसका ज्यादा दिल नही बहलता है। एक सप्ताह में सब जरूरी काम निपटाकर महाराजा फिर से मोरां के पास हवेली में चला गया व उसने दो महीने हवेली से बाहर पैर नही रखा। महाराजा को अपनी सल्तनत के कार्यो के बारे में कोई ज्यादा चिंता नही हुई, क्योंकि हर काम के लिये उसने भरोसेमंद व काबिल व्यक्ति पदाधिकारी स्थापित किये हुये है। महाराजा मोरां के साथ रंग-रलीयां मनाता तथा शराब पीता रहा...............
इस तरह महाराजा महीने, दो महीने बाद सप्ताह भर के लिये हवेली के बाहर जाता व फिर मोरां के पास वापिस आ जाता....... महाराजा दिन रात हवेली में ही गुजारता, महीना-महीना शराब के दौर चलते......... सारा-सारा दिन मोरां का नृत्य होता......... रात को मोरां व महाराजा सेज ;बिस्तरद्ध नृत्य करते व आपस में गुत्थम-गुत्था होकर पड़े रहते.......... समय महाराजा के शासन की तरह अपनी चाल चलता गया।
महाराजा के मोरां के प्रति स्नेह व प्रशासन से लापरवाही की ओर राज्य प्रबंधको ने कोई विशेष ध्यान नही दिया या ये कह लिया जाये उन्हे इसकी आदत पड़ चुकी है। ये उनके लिये कोई नई बात नही है। यह महाराजा का दस्तूर ही है कि जब भी कोई नई स्त्री मिलती है तो पहले कुछ महीने तो वह उसके साथ चीचड़ की तरह चिपका रहता है। फिर धीरे-धीरे महाराजा का आर्कषण उसकी ओर से कम हो जाता है। ऐसे मौके पर महाराजा अपने सेनापति से हर दूसरे-तीसरे दिन नये-नये नक्शे बनवाकर अपने अधिकार-क्षेत्र को निहारता रहता है। हां, अगर कोई स्त्री महाराजा के दिल को ज्यादा छू जाती है या वह स्त्री किसी ताकतवर खानदान से संबध रखती है तो महाराजा उसके साथ बाकायदा उसके धर्म की रिवायतों के अनुसार विवाह भी करवाता है। खुद सिख होने के बावजूद भी उसने हिन्दू रानीयों के साथ हिन्दू व मुसलमान दासीयों के साथ इस्लाम रीति अनुसार निकाह कराये है। अनेक दासीयों पर उसने चादर ड़ालने की रस्म निभाई है। ये बात अलग है कि कईयों को पटरानी की पदवी मिली व कई महज उसकी रखैल बनकर उसके हरम की शोभा व संख्या बढ़ाने तक ही सीमित रही है। पटरानी का पद भी महाराजा की किसी रानी के पास ज्यादा देर तक नही रहता है। क्योंकि महाराजा हर दूसरे-तीसरे साल नया विवाह रचा लेता है। इस तरह पुरानी से छीनकर नई बनी रानी को पटरानी या महारानी की पदवी बख्श दी जाती है।
मोरां के आने से चाहे महाराजा की दूसरी रानीयों में दिलचस्पी कम हो गई है लेकिन इसके लिये मोरां से दूसरी रानीयों को शिकायत तो जरूर है पर जलन किसी को नही है, क्योंकि महाराजा न तो मोरां को राजमहल में लेकर आया है तथा न ही उसे हरम का हिस्सा बनाया है। इसके साथ ही वे सोचती है कि मोरां कंचनी तो एक वेश्या है, गंदा खून। एक कंचनी की औलाद, कब तक महाराजा के पास टिक सकेगी? दो तीन साल तो पलक झपकते ही बीत गये। समय कैसे पंख लगाकर उड़ गया, इसका किसी को इल्म या अहसास नही हुआ।
च्।त्ज्-3- मोरां का महाराजा
अगस्त का महीना होने के कारण न तो गर्मी है और न ही सर्दी है। मोरां का दिल सैर करने को हुया। महाराजा ने तुरन्त लखीया हाथी ;इसका श्रंगार व दुशालों की कीमत 1.5 लाख थीद्ध मंगवाया व अपने साथ छत्र के नीचे बिठा कर लाहौर की सैर करवाने चल पड़ा। मकानों पर ताजा की गई सफेदी व दुकानों को विशेष तौर से सजाई देखकर मोरां ने महाराजा से इसका कारण पूछा। महाराजा इस तरह जोश में आकर बोलने लगा कि जैसे वह पहले ही बताने को बेताब हो, ‘‘अब से कुछ दिन बाद अगले महीने नवंबर में मेरा जन्मदिन है। आज से लगभग 31 साल पहले मेरा जन्म मेरे ननिहाल बड़रूखा गांव में हुया था। जानती हो जब मेरी माता का जन्म हुया था तो फूलवंशी राजा सुखचैन के सुपुत्र यानि मेरे नाना गजपति सिंह ने सनातनी प्रथा के अनुसार मेरी माता को जन्म लेते ही जीवित धरती में दबा दिया था। एक महापुरूष बाबा गुदड़ जी ने मेरी माता को उस मठ मे से निकलवाया तथा मेरे नाना को लाहनते ड़ालते हुये बताया कि इस लड़की की कोख से एक महाबली पैदा होगा। बाबा जी की वह भविष्यवाणी सच साबित हो गई है। मेरे जन्म दिवस की सारे लाहौर को खुशी चढ जाती है। मेरी प्रजा सुख की नींद सोती है व ढोल माहीया गाती है। लोग मेरे राज को इंद्र व विक्रमादित्य के राज से सर्वोत्तम मानते है। मैने सिख राज स्थापित किया है, लेकिन मुगलो की तरह धार्मिक कट्टर नही हुया। मैने जबरदस्ती किसी का धर्म परिवर्तन नही करवाया। सभी धर्मो के लिये मेरे मन मे पूरी श्रद्वा है। अपने जन्म दिन के पवित्र अवसर पर मैं मंदिर में जाकर हवन करवाता हूं, माथे पर चंदन व केसर का तिलक लगवाता हूं। पीरों की दरगाह पर चादर चढाकर आता हूं। दरबार साहिब में खुशी के लिये खोले गये अखंड़ पाठ के भोग की अरदास में शामिल होता हूं। इसके बाद मैं गरीबो को रूपये पैसे व कपड़े आदि जरूरत की चीजें दान किया करता हूं। पिछले साल जागीरों के अलावा बारह लाख रूपये मैने दान पर खर्च किये। इस मुबारक दिन पर मैं कैदियों की सजा बख्श देता हूं या कम कर देता हूं।
लहर में आया महाराजा चुप करने का नाम न लेता अगर मोरां बीच में न टोकती, ‘‘अच्छा महाराजा, धूमधाम से जन्मदिन तो आप पहले भी मनाते आये है,’’ पर इस बार आपकी वर्षगांठ के जश्न अलग ही होगें। आप सारी उम्र याद रखेगें’’ ‘‘वो कैसे?’’ महाराजा ने उत्सुकता का इजहार किया इस बार मोरां कंचनी आपके जन्मदिन की रात ऐसा नाच नाचेगी कि इतिहास के पन्ने भी उसको कभी भूल नही पायेगें। आपके कानों को मेरे घुंघरूओं की छन-छनाहट में बशीरा बिल्लो ;उस प्रसिद्व गायिकाद्ध की आवाज फीकी व बेसुरी लगेगी,’’ महाराजा ने प्रसन्न होकर शरारत करने के लिये भरे बाजार में मोरां को जफ्फी ड़ालकर उसकी गाल पर दांतों से काट लिया। मोरां नखरा दिखाती हुई महाराजा की छाती में हल्की सी थपकी मारती है। ‘‘हटो न महाराज, क्या करते हो.......... बहुत सताते हैं आप........... बंदी कितनी बार कह चुकी हूं कि प्यार किया करो, धक्का नही.......।’’ ‘‘मैं क्या करू, हमलावरों व अफगानों ने मुझे धक्का करने की आदत ड़ाल दी है, मोरां। इसके साथ ही बचपन से सिख मिसलों की खानाजंगी देखता आया हूं’’ महाराजा मूंछो को एंठने लग जाता है।
महाराजा के जन्म दिवस पर दस्तूरन किये जाने वाले सारे खर्चे पहले की तरह ही हुये। अलबता एक बात अलग हुई कि इस बार सब रस्मों में महाराजा के साथ मोरां ने शिरकत की। आज तक यह सौभाग्य महाराजा की किसी रानी को भी प्राप्त नही हुया है। पहले महाराजा अपने हाथों दान किया करता था। इस बार अलौलिक घटना घटी कि महाराजा ने अपनी बजाए सारा दान-पुण्य मोरां के मुबारक हाथों से करवाया। हर जगह मोरां महाराजा के पीछे लैला घोड़े पर बैठकर उसके साथ जाती रही। महाराजा ने कुमैदी रंग का 16 मुट्ठी यह घोड़ा पेशावर के हाकिम सुल्तान मुहम्मद बारकजयी से बहुत ही जद्योजहद के बाद धक्के से प्राप्त किया है। इसके साज रतनों तथा याकूबों से जड़ाये है तथा महाराजा के बिना किसी और को इसकी सवारी करने की इजाजत नही है।
इस खबर के बारे में पता लगने पर सारे शाही महल में हलचल मच गई। सबको महाराजा के इस कार्य का बेहद दुःख हुया। रानी दातार कौर को तो सातो कपड़ो आग लग गई। जब सालगिरह के अगले दिन महाराजा महल में वापिस आया तो दातार कौर महाराजा को टूटकर पड़ गई। पांच-सात मिन्ट तक तो महाराजा दातार कौर की बातें सुनता रहा, लेकिन फिर उससे बर्दाश्त नही हो पाया और उसनेे उल्टे हाथ से जोरदार थप्पड़ मारा। जिससे दातार कौर कई गज दूर जा गिरी। क्रोध में आकर महाराजा ने रानी दातार कौर को महल में से निकाल दिया तथा शेखूपुरे भेजकर गुजारे के लिये जमीन बख्श दी।
इस घटना के बाद महाराजा मोरां को और भी ज्यादा चाहने लगा। महाराजा को शिकार खेलने का बहुत शौक है। गर्मी मे वह ज्यादातर समय शिकार खेलने या झीलों के किनारे गुजारना पंसद करता है। रफता-रफता महाराजा के तकरीबन सभी कामों में मोरां हाथ बंटाने लगी। कई बार तो महाराजा मोरां के साथ घुड़दौडऋ का मुकाबला भी करता है। मोरां फिंरगी औरतों की तरह खुले स्वभाव वाली तथा महाराजा की तरह तेज दिमाग भी है। पठान स्त्रियों की तरह दलेर व अरबी औरतों की तरह सुन्दर तो है ही। महाराजा को मोरां के साथ समय गुजारना अच्छा लगता है। महाराजा शाही किले में कम ही आता है। मोरां की मां की तबीयत अचानक खराब हो गई तो उसकी तामीरदारी के लिये मोरां ने महाराजा से कुछ दिन हीरा मंड़ी में जाने की इजाजत मांगी। महाराजा ने कोई एतराज नही किया क्योंकि उसने खुद भी अपनी दूरस्थ रियासतों का जायजा लेने के लिये बाहर जाने का मंसूबा बनाया हुया है।
रणजीत सिंह जब कशमीर से वापिस आता है तो महल में महाराजा की दिनचर्या पहले जैसी हो जाती है। सुबह पांच बजे उठकर महाराजा स्नान के लिये तैयार हो जाता। अपनी घोड़ी पर सवार होकर बाहर चला जाता। पैदल सेना, घुड़सवार, फौज-ए-खास तथा तोपखाने का खुद मुआयना करता। पूूरे दो घंटे अपनी फौज का निरीक्षण करता हुया। महाराजा अपने सचिव को, जो तबदीलियां करनी होती थी, उसके आदेश भी देता रहता। लगभग नौ बजे अकाल सेना का निरीक्षण-परीक्षण करता हुया घोड़े पर बैठा ही सुबह का नाश्ता करता। इससे आधा घंटा बाद महाराजा ‘‘सरकार-ए-खालसा’’ कर बैठक बुलाता। राज प्रबंध का सारा हिसाब-किताब महाराजा को बताया जाता। चुंगी, कर ;टैक्सद्ध, आमदनी व खर्च का सारा हिसाब-किताब महाराजा खुद करता। इसके अलावा रियासत के बाकी मसलों का निपटारा करता। दोपहर बारह से एक बजे तक गुरूवाणी का कीर्तन सुनता। इसके बाद ‘‘दरबार-ए-खालसा’’ लग जाता। रियासत के घरेलू मसले व फरियादीयों के निवेदन या छोटे-मोटे पड़ोसी राज्यों से झगड़े व समस्याओं का निपटारा इसी दरबार में करता। पांच बजे दरबार बर्खास्त करके महाराजा नाच-गाने का आंनद लेता। रात को आठ बजे भोजन करके शराब पीता व अपनी रानीयों व दासीयों के संग रंगरलीयां मनाता हुया सो जाता। बस यही दिन-चर्या है महाराजा की कई सालों से।
कुछ दिनों के बाद महाराजा को एक नृतकी का नृत्य देखते हुये मोरां की याद आती है। वह मोरां को बुलाने का बुलावा भेजता है तो मोरां अपनी मां की बिमारी का कारण बताकर महाराजा के पास न आने का बहाना मार देती है। महाराजा तड़फकर रह जाता है। वह अपने इंगलिशस्तानी फिंरगी सिपहसालार फोडऱ् व अस्तबल के जरनल ड़ोगरा सुचेत सिंह से मोरां की रिहायशगाह को जाने वाली एक सुरंग खुदवा लेता है व रात को जाकर मोरां से मिलता है। महाराजा व मोरां का खुफीया मिलन रोज सुरंग के रास्ते होने लगता है।
एक दिन बैठी-बैठी रानी मेहताब कौर मोरां के बारे में सोचने लगती है। मेहताब कौर ने मोरां से महाराजा के मिलने के समय का लेखा-जोखा किया तो उसका मुंह फटा रह गया। मोरां को महाराजा की जिंदगी में आये सात-आठ साल बीत चुके हैं। इतने साल कैसे गुजर गये? किसी को पता ही नही चला। खुद महाराजा की आमदनी का जब लेखा-जोखा होता तो सबसे पहले कुल आमदनी का दसवां हिस्सा वह दान व पुण्य पर खर्च करता है। बाकी में से चालीस प्रतिशत सरकारी खजाने में राजकीय प्रबंध व युद्व संबधी कार्यो के लिये रखता है। बाकी बचा पचास प्रतिशत वह अपनी अययाशी के लिये बचाकर रखता। इस रकम का ज्यादातर हिस्सा वह शिकार, शराब व शवाब पर खर्च करता।
मेरां को महाराजा के पास आने बाद जब भी किसी ने देखा है तो हीरों-जवाहरातों से व सोने के गहनों से लदी देखा है। मोरां महाराजा रणजीत सिंह पर पूरी तरह हावी हो चुकी है। महाराजा मोरां पर बुरी तरह से फिदा है.............।
लम्बे समय के बाद आज यह हुया है कि महाराजा दरबार लगाने के बाद राज महल के जनानखाने की ओर आया है तथा दासीयों के साथ बैठकर शतरंज खेलने जा रहा है। महाराजा के शतरंज खेलने का ढंग भी निराला है। हरम के विशाल भवन में धरती पर शतरंज का खाका बना हुया है। मोहरों की जगह दासीयां व रानीयां खड़ी होती है। एक तरफ महाराजा अपनी मनपंसद उन दासीयों व रानीयों को खड़ी करता है, जिनके साथ उस रात उसे भोग-विलास की इच्छा होती है। शतरंज की दूसरी ओर वे दासीयां व रानीयां खड़ी होती है जो बच जाती है। उसके खिलाफ वह रानी खेलती है, जो रात महाराजा के साथ हम-बिस्तर होने की चाहवान होती है। महाराजा की तरफ वह रानी या दासी राजा वाले स्थान पर खड़ी होती है, जिसके साथ महाराजा रात गुजारने का इच्छुक होता है। अगर महाराजा जीत जाये तो वह अपनी तरफ वाली रानी से रास-लीला रचाता है। अगर महाराजा हार जाये तो उसके विरूद्व खेलने वाली रानी के लिये महाराजा को वह रात सुरक्षित रखनी पड़ती है। महाराजा चैपट भी इसी तरह से खेलता है। आम तौर से दातार कौर ही महाराजा के खिलाफ खेलती थी व हमेशा महाराजा से जीत जाया करती थी। लेकिन आज महाराजा के विरूद्व खेलने वाली रानी कोई नही है। शतरंज में सब दासीयां अपनी-अपनी जगह खड़ी हो जाती है तो मेहताब कौर झट से महाराजा की तरफ रानी वाली जगह खड़ी हो जाती है। क्योंकि वह जानती है कि महाराजा जीत जायेगा। महाराजा मुस्कराकर मेहताब कौर की ओर देखता है। मेहताब कौर मंद-मंद मुस्कराते हुये मजाक करती है कि ‘‘महाराज, आज किसके विरूद्व खेलोगे? अब तो माई नकैण ;रानी दातार कौरद्ध भी नही है’’।
महाराजा घुटने पर हाथ की कुहनी रखकर अपने दायें हाथ के अंगूठे व अंगुलीयों के बीच अपना मुंह टिका लेता है। ‘‘हंू, यही सोच रहा हूं’’, महाराजा मोरां के बारे में सोचने लगता है, क्योंकि वह हमेशा शतरंज में महाराजा से जीतती रही है। महाराजा का उखड़ा हुया ध्यान देखकर मेहताब कौर एक दासी को आंख के इशारे से महाराजा को शराब पिलाने के लिये कहती है। महाराजा शतरंज खेलने का इरादा बदलकर दासीयों व रानीयों से कलोलें ;छेड़छाड़द्ध करने लगता है। जब महाराजा की आवाज लड़खड़ाने लगती है तथा वह नीम-शराबी हो गया लगता है तो मेहताब कौर जसवाली रानी राम देवी की मदद से महाराजा को अपने कमरे मे ले जाती है। जैसे ही वह महाराजा को दासीयों के सहयोग से बिस्तर पर लेटाती है तो महाराजा नशे में बेसुध होकर सो जाता है.........।
कुछ घंटो के बाद जब महाराजा जागता है तो देखता है कि मेहताब कौर पंलग के साथ उसके पास बिल्कुल नग्न अवस्था में खड़ी है। मेहताब कौर की आंखों में काम छलकता देखकर महाराजा उसकी ओर हाथ बढाता है। महाराजा का हाथ पकड़कर मेहताब कौर उसके उपर लेट जाती है। वह महाराजा के चोगे को खोलकर उसकी छाती व गर्दन पर भोग-विलासी भावनाओं के साथ अपने होठों के चुम्बनों की बौछार लगा देती है। इस तरह करती मेहताब कौर के ‘‘हूं.....हां........ ऊंय’’ की सरूरमयी हुंकार सुनकर महाराजा की कामेच्छा भी भड़क पड़ती है। वह मेहताब कौर की बेपर्दा पीठ पर हाथ फेरने लगता है। मेहताब कौर महाराजा के बायें हाथ को अपने दायें व दायें हाथ को अपने बायें हाथ से पकड़कर महाराजा के पंजों की अंगुलीयों में अपनी अंगुलीयों को फंसा लेती है। महाराजा को चूमना छोड़कर मेहताब कौर गरूर से कहती है, ‘‘क्या उस मोरां कंचनी में उससे ज्यादा जोर है, जो वह दिन रात आप को दबोचे रखती है?’’ मोरां का नाम सुनकर महाराजा का नशा उत्तर जाता है।
‘‘आपने जमान शाह दुर्रानी को ललकारते हुये कहा था कि, ‘‘ऐ अब्दाली के पोते बाहर निकल, देख चड़त सिंह का पोता आया है। मेरे साथ दो-दो हाथ कर, सरदार बहादुर अगर आप चड़त सिंह के पोते है तो मैं भी जय सिंह कन्हैया की पोती हूं, मेरे साथ बिस्तर-युद्व करो’’।
मेहताब कौर की चुनौती सुनकर रणजीत सिंह जोश में आ जाता है तथा पल्टी मारकर वह आलिंगनबद्व मेहताब कौर के उपर हो जाता है।
हवा के तेज झोकें से कमरे की खिड़की खुलती है तथा ठंड़ी-ठंड़ी हवा पसीने मे तर मेहताब कौर व महाराजा के पसीने को सुखाने का यत्न करती है। मेहताब कौर निढाल हुई पड़ी रहती है। महाराजा उठता है तथा कपड़े पहनकर बाहर जाने लगता है। ‘‘कहां जा रहे हो आधी रात को’’ मेहताब कौर अपने नग्न शरीर पर चादर लेते हुये कहती है।
‘‘कुछ नही, मैं जरा सैर करने जा रहा हूं’’
‘‘मुझे पता है, जरूर उस कंजरी के पास जा रहे हो, उसमें ऐसा क्या है? जो मुझमे नही है’’ मेहताब कौर फंुफकारती है।
महाराजा गुस्से से लाल हो कर कहता है, ‘‘बकवास न कर, तेरा काम हो गया है’’
अब तुने मुझसे क्या लेना है? मैं चाहे जहां जाऊं, एक राजा के और भी फर्ज होते है, क्या सारे काम तुझे पूछकर किया करू?
‘‘कान खोलकर सुन ले, फिर कभी उसको कंजरी ;वेश्याद्ध न कहना, वह रणजीत सिंह की मुहब्बत है’’ बाहर जाता हुया महाराजा कहता है।
मेहताब कौर चुप हो जाती है तथा महाराजा के जाने के बाद चादर में मुंह छिपाकर रोने लगती है.........।
महाराजा झुंझलाहट भरा मन लेकर मोरां के पास पहंुचता है। मोरां के पास भी वह कुछ देर बेरूखी से पेश आता है। महाराजा का उतरा मन देखकर मोरां उससे कारण पूछती है। महाराजा सब कुछ सच-सच बता देता है। मोरां मेहताब कौर की गर्दन दबाने का कोई हल अपने दिमाग में सोच रही होती है कि महाराजा की दांयी आंख में र्दद शुरू हो जाता है, क्योंकि उसकी बायीं आंख खराब होने के कारण नजर का सारा जोर दांयी आंख को ही झेलना पड़ता है। महाराजा पीड़ा से कराहने लगता है तथा आंख को मसल-मसलकर लाल कर लेता है। मोरां महाराजा की दोनों आंखों को गुलाब जल से धोकर, सूती कपड़े को सांसो की गर्माहट से गर्म करके महाराजा की आंख को सेकने लग जाती है। कुछ ही पलों में महाराजा को कुछ राहत महसूस होने लगती है। महाराजा दासीयों को फकीर अजाज-उद-दीन को बुलाने के लिये कहता है।
मोरां महाराजा के प्रति अपना स्नेह प्रकट करते हुये कहती है, ‘‘महाराजा, इस समय आपको अपने अहलकार की नही बल्कि वैद्य की जरूरत है’’ ‘‘इसी लिये तो मैं फकीर को बुला रहा हूं, उसके पिता गुलामु-उद-दीन ने उसे यूनानी उपचार की विधीयां सिखाई है, वह अच्छी तरह से जानता है मेरी आंख की बिमारी को। लाला हिकमत राय से उसने हिकमत सीखी है’’।
महाराजा का संदेश मिलते ही फकीर अजाज-उद-दीन एक थैला लेकर महाराजा के पास मोरां के कोठे पर आ पहुंचता है। वह महाराजा की आंख में कोई तरल पदार्थ ड़ालता है तथा दवा की एक पुड़ीया देता है। महाराजा पानी की जगह शराब में घोलकर उसे पी लेता है तथा फकीर को चले जाने के लिये कहता है। अजाज-उद-दीन चला जाता है।
फौरन महाराजा की आंख की पीड़ा मद्वम पड़ जाती है। महाराजा लेटते ही सो जाता है। मोरां सारी रात महाराजा के सिरहाने बैठ कर हाथ पंखे से हवा देती रहती है।
प्रभात होने पर जब महाराजा की आंख खुलती है तो वह देखता है कि मोरां जम्हाई लेती हुई उसे पंखे से हवा दे रही है। मोरां की आंखों में नीद की बोझलता दिखाई देती है। नीद न लेने से मोरां की सोजिश भरी आंखों देखकर लेटा हुया महाराजा उठकर बैठ जाता है, ‘‘मेरी जान, क्या बात तू सोई नही सारी रात को?’’
‘‘आप बिमार हो तो मैं कैसे सो सकती हूं? आपको किसी समय भी मेरी जरूरत पड़ सकती थी। अगर मैं सो जाती तो आपका ख्याल कौन रखता? आपको तो पता ही है, मेरी नींद का सोते समय मुझे कोई सुध-बुध नही रहती, चाहे कोई सिरहाने खड़ा होकर नगाड़े बजाता रहे................., मेरी छोड़ो आप अपनी सुनाओ, अब आंख का क्या हाल है?’’
‘‘हां, अब ठीक है, दर्द तो बिल्कुल नही होता, मैं फिर भी बिअंखी ;महाराजा का इतालवी ड़ाक्टरद्ध को दिखा दूंगा’’
मोरां महाराजा के दोनो गालों पर अपने मुलायम हाथों की हथेलीयां रखकर उनकी आंख में आंखें ड़ालकर प्यार दिखाती है। महाराजा मोरां की दोनो कलाईयां पकड़कर उसके हाथ चूमता है।
‘‘हाये, अ.........ल्..........ला’’ मोरां महाराजा के हाथों से अपने हाथ झटका मारकर छुड़ा लेती है तथा पलकें झुकाकर शरमाने का ढोंग करती है, ‘‘मैं मर जाऊं, ये क्या करते हो? मेरा फर्ज आपकी कदमबोशी करना है। महाराज आप भी बड़े वो है, कभी-कभी मुझे मरने वाली कर देते हो’’
‘‘ओ, हो, मोरां मरें तेरे दुश्मन, तुझ में तो मेरी जान बसती है’’
मोरां महाराजा की गोद में सिर रखकर लेट जाती है, ‘‘महाराज आपकी आगोश में आकर कितना सकून मिलता है, इसे मैं लफजों में बयां नही कर सकती, मैं अपने आपको बहुत महफूज महसूस करती हूं, आपकी बांहों में आकर’’, ‘‘तुझे देखकर भी मोरां जन्नत का दीदार हो जाता है’’ महाराजा मोरां के नहले पर दहला मारता हुया अपने बांये हाथ से मोरां के बाल प्यार से पीछे की ओर करता है तथा दांये हाथ की अंगुली से सांप की पद-चाल जैसी लकीर मोरां के माथे से खीचता हुया उसके नाक तक ले जाता है। नाक से होती हुई महाराजा की अंगुली मोरां के बांयें रूखसार पर पंजाब का नक्शा बनाती हुई उसके होठों पर गश्त करने लगती है। शरारत करने के लिये मोरां महाराजा की अंगुली अपने दांतों मंे दबा लेती है। फिर दोनो हाथों से पकड़कर अपने मुंह से अंगुली निकालती हुई पूछती है,’’ कहो तो खा जाऊं?’’
‘‘अंगुली क्या चीज है? सारे को निगल जा चाहे, तुझे इंकार करता हूं मैं?’’ महाराजा मोरां से अंगुली छुड़ाकर उसके पेट पर हाथ फेरता हुया कमर तक ले जाता है। कमर से महाराजा का हाथ मोरां की चोली से होता हुया उसकी छाती की ओर यात्रा आरम्भ करता है तथा महाराजा के हाथ से चोली सिमटती हुई उपर को आने लगती है। जब महाराजा का हाथ उसकी नाभि तक पहुंचता है तो मोरां उठकर महाराजा के सीने से लगकर उसे अपनी कोमल कलाईयों से जकड़ लेती है। महाराजा मोरां को आलिंगन में लेकर पंलग पर गिराकर उसमें अभेद हो जाता है..............।
नग्न मोरां वस्त्र रहित महाराजा की बांह का सिरहाना ;तकीयाद्ध बनाकर लेटी हुई होती है, नींद से उसकी आंखें बंद होने लगती है तथा वह आंखें खोले रखने की संघर्षमयी कोशिश करती है। महाराजा छत को टिकटिकी लगाकर निहार रहा होता है। सही मौका देखकर मोरां अपना दांव खेलती है, ‘‘महाराज, क्या सोच रहे है? मेहताब कौर के बारे में?’’
महाराजा ठिठककर मोरां की ओर देखता है। वास्तव में सोच तो वह कुछ भी नही रहा होता लेकिन मेहताब कौर का जिक्र आने पर उसे मेहताब कौर की याद आ जाती है। उसका सारा मजा किरकरा व मुंह का स्वाद कड़वा हो जाता है। महाराजा मोरां की बात का कोई जवाब नही देता। मोरां कुछ पल महाराजा के मुंह खोलने का इंतजार करके अपनी बात शुरू कर लेती है, ‘‘महाराज, कनीज की जान बख्शी करें तो दिल का एक भेद आपके साथ सांझा करूं?’’
‘‘हां........हां........ मेरी जान-ए-जिगर बेखौफ फरमाओ’’, महाराजा अपनी बांहो में लपेटकर मोरां को अपनी छाती पर लिटा लेता है। मोरां जानबूझकर कुछ देर चुप रहती है। इससे महाराजा की उत्सुकता और बढ़ जाती है, ‘‘ड़रो मत मोरां, कहो जो तुम्हारे दिल में है’’
‘‘महाराजा, मेरी क्या औकात थी, मुजरे करके अपना पेट पाल रही थी। मेरी मां भी नृतकी थी, शायद उसकी मां भी......... मौला ;भगवानद्ध जाने हमारा खानदान कबसे इस जलालत भरे धंधे में है। आपने जर्रा-नवाजी की मेरे उपर। आप जैसे पारस से रगड़कर मैं लोहे से सोना बन गई। आपने मुझे सातों बहिशत ;स्वर्गद्ध की वस्तुओं से नवाजा है। महारानीयों जैसा मेरे साथ सलूक करते हो........... ‘‘बोलती-बोलती मोरां महाराजा का प्रतिक्रम देखने के लिये चुप कर गई’’ महाराजा की नम हो गई आंखों को देखकर मोरां को यकीन हो गया कि महाराजा भावुक हो गया है। वह अपना किस्सा कहना जारी रखती है, ‘‘एक सच्ची मुसलमान स्त्री होने के नाते मेरा फज्र बनता है कि आपके खाये नमक की कीमत अदा करूं, नही तो परवरदिगार मुझे दोजख ;नर्कद्ध की आग में फेंकेगा।
‘‘साफ, साफ बता मोरां, मैं तेरा मतलब नही समझा?’’
‘‘मेरा कहने का मतलब है कि आपने कभी सोचा है कि मेहताब कौर के साथ आपका विवाह क्यों हुया?’’
‘‘नही, क्यों?’’
‘‘इसके पीछे एक गहरी साजिश छिपी हुई है। महाराज, कन्हैया मिसल वालों से शुक्रचक्क वालों की चढाई बर्दाश्त नही होती थी, साथ ही आपकी व उनकी दुश्मनी तो कई पुश्तों से चली आ रही है। आपके खानदान को तबाह करने के मकसद से कन्हैया मिसल वालो ने मेहताब कौर का विवाह आपके साथ किया है, ताकि वे आपके अंदरूनी भेद लेकर आपके वंश का सर्वनाश कर सके’’
मोरां की बात को महाराजा लापरवाही से लेते हुये कहता है, ‘‘नही, नही, मोरां, तुझे गलतफहमी है, दरअसल हमारे परिवार ने यह रिश्ता दोनो के एकजुट होकर ताकतवर बनाने के इरादे से तय किया है’’
‘‘लेकिन मैने तो सुना है कि कई बार कन्हैया मिसल व शुक्रचक्कीया मिसल के बीच झड़पें हो चुकी है। 1784 ई. में शुक्रचक्कीया, भंगी व रामगड़ीया मिसलों ने राजा संसार चंद कटोच की फौजों के साथ मिलकर गांव अंचल, बटाला के नजदीक कन्हैया मिसल के जय सिंह पर हमला बोल दिया था, जिसके परिणामस्वरूप् जय सिंह का बेटा गुरबख्श सिंह यानि मेहताब कौर का पिता आपके पिता महा सिंह के हाथों मारा गया था?’’
‘‘ये तो तूने सही सुना है पर हमारा रिश्ता तो इससे पहले तय हो गया था। उस समय मेरी उम्र तो मुश्किल से लगभग छः साल की थी’’
‘‘यही बात तो मैं आपको समझाना चाहती हूं। क्या आपने कभी सोचा है कि अपने पिता के कातिल के पुत्र के साथ ही मेहताब कौर ने विवाह क्यों करवाया है? आप नही जानते आपकी सास सदा कौर बहुत शातिर औरत है। जिस व्यक्ति ने उसे विधवा किया, उसने उसी के बेटे से अपनी बेटी का विवाह क्यों किया? अपने पति गुरबख्श के कत्ल के बाद गुस्से में आकर उसे अपनी बेटी का रिश्ता तोड़ देना चाहिये था। जरा सोचो महाराज, आप उसकी जगह होते तो आप क्या करते? वे दोनो मां-बेटी अंदर से प्रतिशोध की ज्वाला में जल रही है। उसके अंदर बदले की भावना है। वे जख्मी नागिनें है। वे आपको तबाह करके अपना इंतकाम लेना चाहती है। बूढा जय सिंह कुछ कर नही सकता था व सदा कौर स्त्री होने के कारण आपके साथ टक्कर नही ले सकती थी। फिर बदला कैसे लेते? उन्होने इस काम के लिये मेहताब कौर का उपयोग किया है। बुद्विमान व्यक्ति कहते है कि मैह न लईये मंड़ी की ते धी न लईय रंड़ी की ;भैंस न ले मंड़ी की, धी न ले रंड़ी कीद्ध दोनो ही नफे की जगह नुकसान करती है’’
‘‘मोरनीए, ये तो मैने कभी सोचा ही नही’’, महाराजा गम्भीर सोच में डूब जाता है।
‘‘अगर आप चड़त सिंह के पोते है तो मैं भी जय सिंह की पोती हूं.........’’ मेहताब कौर का बोला हुया यह वाक्य बार-बार रणजीत सिंह के कानों में गूंजने लग जाता है। मोरां की फेंकी चिंगारी कुछ ही देर में शोले बन जाती है। महाराजा तेजी से उठकर कपड़े पहनता है। मोरां फुर्ती से उसके बाजू पर कोहिनूर हीरा बांध देती है तथा महाराजा को कलगी लगी पगड़ी लाकर उन्हे देती है। महाराजा पगड़ी सिर पर धारण करके अपनी तलवार उठा लेता है। मोरां उसे रोकने की जगह ‘‘खुदा हाफिज’’ कहकर विदा कर देती है.............. सुरंग से बाहर निकलते महाराजा व उसके सिपाहीयों के घोड़ों की टाप सुनकर मोरां खिड़की में से देखती है। जब महाराजा उसकी आंखों से ओझल हो जाता है तो मोरां बिना मतलब ही अकेले ऊंची आवाज में पागलों की तरह हंसती है। वह हंसती जाती है........ हंसती जाती है.............. तथा फिर अचानक उसकी हंसी रोने में बदल जाती है!!!...........
किले में दाखिल होते ही महाराजा गुस्से से आग-बबूला होकर जोरदार तांड़व करता है। वह मेहताब कौर को चोटी से पकड़कर घसीटता हुया महल से बाहर फेंक देता है तथा सिपाहीयों को हुक्म देता है, ‘‘ले जाओ, दूर कर दो इस कमजात को मेरी आंखों से’’ सिपाही मेहताब कौर को ले जाते है। कुछ समय बाद गुस्सा शांत होने पर महाराजा महामंत्री को बुलाता है तथा अपनी सास सदा कौर की जागीरें जब्त करने का फरमान देता है। अगले ही दिन विधवा सदा कौर की जमीन जायदाद जब्त कर ली जाती है...............।
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इसके बाद जिद में आकर महाराजा रोज सरेआम मोरां के कोठे पर जाने लग पड़ा। बाजार में महाराजा का हाथी खड़ा दिखाई देता तो लोग समझ जाते कि महाराजा मोरां के साथ रास-लीला में मगन है। मोरां महाराजा के दिलो-दिमाग पर बुरी तरह से छा चुकी है। महाराजा पहले की तरह कई-कई दिन शराब पीकर मोरां के कोठे पर पड़ा रहता है। अगर कोई अहलकार या करीबी उसे समझाने की कोशिश करता है तो वह भड़क जाता है।
दीवान मुहकम चंद महाराजा को रियासत के कुछ चैधरीयों के द्वारा ‘रक्षा-कर’ अदा न करने की शिकायत करता है तो महाराजा अपने फिंरगी जनरल गारड़वर व देसा सिंह मजीठीया पर इस मामले को निपटाने की जिम्मेदारी छोड़कर खुद मोरां से ऐश करने में लिप्त हो जाता है। गारडवर थोड़ा मुंह-फट होने के कारण महाराजा से कहता है, ‘‘महाराजा साहिब, हमारी आयरिश लोगों की फितरत तो नही है किसी के मामले में दखलअंदाजी करने की, पर आपका शुभचिंतक होने के नाते फर्ज बनता है कि मैं आपको, आपके अच्छे-बुरे से सचेत व आगाह करूं’’।
‘‘बेझिझक बोल गारड़नर’’ महाराजा ने हाथ उंचा उठाकर जाम हवा में उछाला।
‘‘महाराज, आप वेश्या के कोठे पर बैठे जंचते नही, इसमें आपके वकार ;इज्जतद्ध को ढाह लगती है। आप राज महलों पर खास निजी रिहायशगाहों पर अय्याशी करते अच्छे लगते है’’
गारड़नर की कही बात महाराजा के दिल को लग जाती है, उसे पता चलता है कि मोरां की मां की सेहत आये दिन ज्यादा बिगड़ती जा रही है। महाराजा कुछ चोटी के हकीमों के अलावा अपने एक इंगलिस्तानी ड़ाक्टर ‘हार्वी’ को मोरां की मां के इलाज पर लगा देता है। मोरां की मां के मर्ज को कुछ ही दिन में फर्क पड़ने लगता है। मां के ठीक होते ही महाराजा फिर से मोरां को उसी हवेली में वापिस ले जाता है वहां पर सब चलने लगता है, जो पहले हुया करता था।
महाराजा का प्यार मोरां से घटने की बजाये आये दिन बढता ही जा रहा है। महाराजा का जब दिल करता वह मोरां के पास चला जाता। धीरे-धीरे हालात ऐसे पैदा हो गये कि अगर महाराजा ने लाहौर से अमृतसर या किसी और जगह भी जाना होता तो लाहौरी या दिल्ली दरवाजे की जगह महाराजा का घोड़ा अपने आप ही मोरां की हवेली की ओर मुंह कर लेता। फिर महाराजा भी घोड़े को रोकता नही तथा अपने सब काम-धंधे छोड़कर मोरां के पास जाकर रंगरलीयां मनाता है।
अब महल की ओर आकर्षित करने वाला कोई खास शख्स नही है। मोरां अपनी मन मर्जी करने तथा अपनी ही चलाने लग जाती है। महाराजा के साथ सैर, शिकार व मजलिसों में तो बहुत समय पहले ही शिरकत करने लगी थी। लेकिन अब मोरां ने महाराजा के प्रशासनिक कार्यो में भी दखलअंदाजी करनी शुरू कर दी है। मुसम्मन बुर्ज की जगह दरबार अब मोरां की हवेली में लगने लगा है। फरियादी राज दरबार की जगह अपनी दरखास्तें मोरां के दरबार में पहंुचाने लगे हैं। यहां तक कि कई बार तो मुकद्मों के फैसले भी मोरां खुद ही सुना देती तथा महाराजा इस पर कोई एतराज नही करता। मोरां की शान के खिलाफ जो सिर उठाता, मोरां अपनी चालों से उसे कुचल देती। मोरां यहां दरबार के कई ओहदेदारों को उंची पदवी से हटाकर घटीया पदवी पर लगवाया, वही कई व्यक्तियों को कंगाल से अमीर भी बनवाया। हुक्म महाराजा सुनाता है लेकिन उसमें से बोलती मोरां होती है।
मोरां की सरकारी काम-काज में दखलअंदाजी से तंग आकर दरबार में मंत्रीयों, जनरलों व अहम अहलकारों ने एक सभा बुलाई तथा फैसला किया कि मोरां को मन-मर्जी करने से रोका जाये। सब मोरां से दुःखी होकर उसके नाक में नकेल ड़ालना चाहते है। सबने ये फैसला किया कि मोरां के पंजे से महाराजा को निकाला जाये। कोई मोरां को उसकी औकात से वाकिफ करवाये तथा महाराजा को समझाये कि वह कुर्बानीयों व मेहनत से बनाये सिक्ख राज को संभालने की ओर तव्वजो दे। लेकिन बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? बात इस मोड़ पर आकर अड़ जाती है। राज कौर व मेहताब कौर के बुरे हश्र के बारे सोचकर सब चुप कर जाते है। आखिर लम्बी सोच विचार के बाद बुजुर्ग व सम्मानीय बाबा मीर मोहकम दीन के नाम पर विचार होती है। वे समझदार व तर्जुबेकार बुजुर्ग होने के साथ-साथ महाराजा के करीबी भी है तथा महाराजा के सम्मान के पात्र भी। बाबा मीर मोहकम दीन खुद भी इस मामले में चिंतित रहते है। वे इस संबध में कोई न कोई यत्न करने को सहमति दे देते है। महाराजा लाहौर से बाहर गया होता है। जब इस बात का पता बाबा मीर मोहकम दीन को लगता है तो वह अकेली मोरां को समझाने के इरादे से मोरां के पास जाता है। लेकिन मोरां उसकी एक नही सुनती। यहां तक कि बाबा मीर मोहम्मद दीन मोरां के पांवों में अपनी पगड़ी रख देता है। मोरां उसकी बेइज्जती करके व धक्के मारकर हवेली से बाहर निकाल देती है।
बाबा मीर मोहकम दीन गीली आंखों व भरा मन लेकर अभी हवेली से बाहर निकल ही रहा होता है कि उधर से महाराजा आ जाता है। महाराजा बाबा मीर मोहकम दीन के चरण छूकर उनसे हवेली आने का कारण पूछता है।
‘‘आप मोरां कंचनी को ही अंदर जाकर पूछ लो’’, बाबा मीर मोहकम दीन की भर्राई सी टूटे शंख जैसी आवाज निकलती है।
महाराज अंदर जाकर मोरां से मामले की जांच-पड़ताल करता है।
‘‘कौन था यह? मोरां अपना प्रश्न दाग देती है।
महाराजा ने मोरां के कंधों पर अपने हाथ रख दिये, ‘‘ यह मेरे दरबार का कर्मचारी है, बाबा मोहकम दीन, 1799 ईस्वी में जब मैने लाहौर पर विजय प्राप्त की थी तो लाहौरी दरवाजा खोलकर मेरा स्वागत करने वाला यह पहला व्यक्ति था तथा इसी की मदद से मैं जंग जीत सका था। मैं इसकी बहुत इज्जत करता हूं। इसी लिये 1801 ईस्वी में भरे दरबार में जब मुझे महाराजा की पदवी नसीब हुई तो उसी समय मैने मीर मोहम्मद दीन को ‘बाबा’ की उपाधि से नवाजा था’’।
मेरां ने तेजी से अपनी अगली चाल चल दी। हाथों की कैंची मारकर महाराजा के हाथ अपने कंधों से हटाती हुई दूर चली जाती है। ‘‘ताज्जुब है बड़े गुस्ताख व गैर-शुक्रगुजार कर्मचारी पाल रखे है, अपने दरबार में? जरा सोचो, जो शाह जमान केे जाते ही भंगी सरदारो का बन गया तथा फिर वह उनसे गद्दारी कर सकता है तो वह आपका हमेशा के लिये वफादार कैसे हो सकता है? जो नमक हरामी करके आपके लिये दरवाजे खोल सकता है, वह किसी और के लिये दरवाजे खोलने में ढील नही करेगा’’।
‘‘क्या कहना चाहती हो?’’ महाराजा मोरां की बात के अर्थ पकड़ने की कोशिश करता है।
‘‘जानते है, ये क्या कह कर गया है?’’ उसने मेरी बहुत तौहीन की है। मुझे बहुत जलील करके गया है। कहता है कि नाली की ईट चुबारे को नही लग सकती। मैं एक कंजरी ;वेश्याद्ध हूं तथा कंजरी ही बनकर रहूं, मुझे तो इस हवेली में से अभी भी कंजरी...............कंजरी..............कंजरी की आवाजें सुनाई दे रही है। क्या मैं इंसान नही हूं? मुझे इज्जत से जीने का हक नही है? मुझे कहता है कि मैं आपको छोड़कर दिल्ली दरबार में मुजरे करूं। वहां मुझे भारी इनाम मिलेंगें तथा महलों में निवास होगा। महाराजा ने तो तुझे इस खंड़हर में कैद कर रखा है। तू कंजरी है, तभी तो तुझे महल में लेकर नही गया। महाराजा तो फरेबी व ढोगी है। तुझे प्यार करता होता तो हरम में ले जाकर रखता और उसने तो यह भी कहा कि आप मेरे साथ भी राज कौर व महताब कौर वाला सलूक करेंगे। मुझे कंजरी कहा वह तो मैने बर्दाश्त कर लिया, लेकिन आपके प्रति वफादार होने के कारण आपकी शान के खिलाफ उसने जो जहर उगला, वह मैं आपको बता नही सकती। या........अ.......अल्ला वह सब सुनने से पहले मेरे कान बहरे क्यों न हो गये’’ चालबाजी करने के लिये मोरां ने दोनो हाथ अपने कानों पर रखकर उन्हे बंद कर लिया।
मोरां की अदाकारी कमाल कर गई। महाराजा तैश में आ गया तथा गुस्से में उसने पहरेदारों को बुलाकर कहा कि फौरन बाबा मीर मोहकम दीन को गिरफतार करके ले आये।
थोड़ी देर बाद सिपाहीयों ने मीर मोहकम दीन को ला हाजिर किया।
मीर मोहकम दीन नम्रता के साथ हाथ बांधकर महारजा को कहने लगा, ‘‘महाराज, आप एक संदेश भेज देते। मैं अपने आप आपकी हजूरी में आ जाता, इतने सिपाहीयों को भेजने की क्या जरूरत थी?’’
‘‘बाबाजी, यह मैं क्या सुन रहा हूं? क्या आपने मोरां को मुझे छोड़कर चले जाने की सलाह दी है?’’
‘‘वोह.........तो........मैं.........!’’
बाबा मीर मोहकम दीन को सफाई देता देखकर मोरां बीच में ही टोक दिया, ‘‘तुम्हे महाराज ने जितनी बात पूछी है, उतना जवाब दो’’
‘‘बाबाजी, यह बात सही है या नही?’’ महाराज तेज आवाज में पूछता है।
म्हाराज के स्वभाव से वाकिफ होने के कारण बाबा मीर मोहकम दीन ठिठक जाता है, ‘‘हां, हजूर दुरूस्त है’’।
इतनी बात सुनकर मोरां के भड़काये हुये महाराजा को गुस्सा आ जाता है तथा वह आगे बढकर बाबा मीर मोहकम दीन के थप्पड़ मार देता है। बाबा मीर मोहकम दीन को इसकी बिल्कुल उम्मीद नही होती।
‘‘इस गलती की आपको सजा मिलेगी बाबा जी, आपकी हिम्मत कैसे हुई ये बात कहने की? लाहौर सरकार अभी आपकी सारी जायदाद जब्त करती है तथा इस गलती के लिये आपको दस हजार रूपये जुर्माना भरना पड़ेगा’’।
महाराजा अपना फैसला सुनाकर रूकता ही है कि मोरां अपना हुक्म करने लगती है ‘‘इसी पर बस नही है, आपसे लाहौर सरकार की बख्शी ‘बाबा’ की उपाधि वापिस ली जाती है तथा अनिश्चितकाल के लिये कैद किया जाता है’’
‘‘हां, जैसे मोरां कंचनी ने कहा है, उसी तरह होगा’’ महाराजा मोरां की हां में हां मिलाता है।
बाबा से सिर्फ मोहकम दीन रह गया वह व्यक्ति अपने साक-संबधीयों से उधार मंागकर जुर्माना भरता है तथा उसे जंजीरों से जकड़कर चिनाब दरिया के किनारे राम नगर काल कोठरी में कैद कर दिया जाता है।
इस घटना के बाद मोरां की दहशत सारे लाहौर में ऐसे फैल जाती है, जैसे कभी उसके हुस्न की चर्चा फैला करती थी। सारी जनता को यह मालूम हो जाता है कि महाराजा मोरां की अंगुलीयों के इशारों पर नाचने वाली कठपुतली बनकर रह गया है। मोरां के खिलाफ आवाज उठाने की कोई हिम्मत नही करता है।
कुछ साल बाद लोग राज कौर से जो बीती, मेहताब कौर से हुये सलूक व मोहकम दीन की बेइज्जती को भूल गये।
मोरां के रूप की धार कम होने की जगह और तीखी होती जा रही है। आये दिन मोरां का दबदबा महाराजा के उपर बढता जा रहा है। महाराजा मोरां पर अपना आप न्यौछावर करने पर तुला हुया है। मोरां महाराजा पर काबिल रहने के लिये कोई न कोई षड़यंत्र रचती रहती है। मोरां कई बार तो ऐसी करतूतें भी कर जाती है कि धरती के नीचे का बैल भी कांप जाता है।
महाराजा ईस्ट इंडि़या कम्पनी के फिंरगी अफसरों की दावत के लिये सतलुज से चार सप्ताह बाद लाहौर वापिस आता है। मोरां को जब महाराजा के लाहौर वापिस आने की सूचना मिलती है तो वह विशेष तौर से उसके लिये हार-श्रंगार करती है तथा महाराजा के आने से पहले ही अपने हुस्न को तराश रखा है। महाराजा भी कई दिनों का भरा पड़ा है तथा उसे हल्का होने की जल्दी है। महाराजा के घोड़े के हवेली में दाखिल होते ही मोरां अपने गहनों वाली पिटारी खोलकर किसी खास गहने को ढूंढने का नाटक करने लग जाती है।
महाराजा मोरां के पीछे से आकर उसकी पतली कमर को अपनी बांहों में लेकर कस लेता है।
‘‘हां, महाराज कसकर अपने साथ भींच लो......... मां कसम, बहुत मजा आ रहा है........... आपकी जुदाई में सूखकर ताबीज बनी पड़ी हूं.......... मोरां की नशीली सी आवाज आती है।
मध्यम कद व सांवले रंग का महाराजा अपने से लम्बी गोरी मोरां के जिस्म को अपने शरीर के साथ कसता हुया उसके पैर जमीन से उपर उठा देता है। महाराजा को ऐसा प्रतीत होता है जैसे सतलुज से लेकर दर्रा-ए-खैबर तक का सारा इलाका उसकी बांहों में सिमट गया हो। कुछ देर उपर उठाये रखने के बाद जब महाराजा मोरां को नीचे उतारता है तो मोरां के बांये कान की पेपड़ी को मुंह मारता है तथा फिर अपनी गर्म सांसो भरी फूंक मोरां के कान में फूंकता है। फूंक सीधी मोरां के दिमाग को चढ जाती है। अपने आप को ठंड़ा रखने के लाख यत्न करने के बावजूद भी वह उत्तेजित हुये बिना नही रह सकती। काम वासना उसके अंदर उबाल खाने लगती है। महाराजा लगातार फूंक मारता चला जाता है। मोरां गर्म होती-होती दहकने लगती है। महाराजा ने औरत में काम चेष्टा जगाने की यह जुगत कांगड़ा की एक वेश्या से सीखी है............. महाराजा के हाथ मोरां के शरीर की तलाशी लेने लग जाते है........... मोरां को अपने सब्र को और बांधकर नहीं रखा जाता तथा वह खसखस के महीन दानों की तरह महाराजा के सामने बिखर जाती है..............
दोनो ही ठंड़े शीतल होकर ढह-ढेरी हुये गिर पड़ते है.........
मोरां अंगूरो के गुच्छे से अंगूर तोड़कर अंगूर का आधा हिस्सा अपने होठों में दबा लेती है तथा फिर उसी अंगूर का बाकी हिस्सा महाराजा के होठों से छुआती है। इस तरह कभी तो महाराजा अंगूर दबोच लेता है तथा कभी मोरां अंगूर को निगल जाती है। कुछ देर यह खेल खेलने के बाद मोरां महाराजा को सवाल करती है, ‘‘महाराज आप सैर-ओ-तफरीह से आये है, मेरे लिये क्या तोहफा लाये है?’’
‘‘मांग तुझे क्या चाहिये?’’
‘‘लो, इस तरह थोड़ा होता है, नजराना मांगकर लिया तो क्या लिया, मजा तो तब है जब बिना मांगे देने वाला अपने आप दे, उसका अलग ही मजा होता है। इश्क तो मुगल करना जानते है, शाहजहां ने मुमताज के मकबरे के लिये ताज महल बना दिया’’, मोरां महाराजा की ओर देखकर मुस्कराती हुई आंख मारती है। महाराजा फूलकर कुप्पा हो जाता है। ‘‘तू बात तो कर, लाहौर का नाम बदलकर मोरांवाली रख दूं, तू भी क्या याद करेगी कि किसी सिख महाराजा से इश्क किया है’’
‘‘लो, जाने दो महाराज, इतने बड़े गप्प नही मारा करते, उतनी बात की जाती है, जितना आदमी कर सकता हो, आपसे आज तक अपने नाम जीका सिक्का तो चलाया नही जा सका’’, मोरां के लहजे में तानेवाजी प्रत्यक्ष दिखाई देती है।
मेरां का ताना सुनकर महाराजा गम्भीर हो जाता है, ‘‘यह बात नही है मोरां, मैं चाहूं तो शाम तक दस सिक्के चलवा दूं, सिक्के का क्या है? अपने नाम का सिक्का तो 1763 ईस्वी में जींद पर कब्जा करके मेरे नाना भी चुला चुके है। असल में तुझे मेरी बीती जिंदगी के बारे में ज्यादा पता नही है। जब मैं पैदा हुया था तो उस समय मेरे ननिहाल वालो ने मेरा नाम बुध सिंह रखा था लेकिन मेरे पैदा होते ही कामयाबी तथा मैदान-ए-जंग में जीत मेरे पिता के कदम चूमने लगी। जब मेरे जन्म की खबर मेरे पिता को हुई तो उस समय वे चड़दे सरदार पीर मुहम्मद से रसूलगढ जीतकर आ रहा था। इस जीत के कारण मेरे पिता ने मेरा नाम बदलकर रणजीत सिंह रख दिया। मैं सिर्फ दस साल का था। जब मेरे पिता का देहांत हो गया तथा मैं शुक्रचक्कीया मिसल का गद्दीदार बना। बाबा साहिब सिंह बेदी ने मिसल की जिम्मेवारी मुझे देते हुये, ‘‘पंजाब का बादशाह’’ बनने का मुझे आर्शीवाद दिया था। मैने अपने पिता के अहलकार दीवान लखपत राये व दल सिंह की निगरानी में मिसल की सेवा की है। जिसके बलबूते आज मैं ‘‘शेर-ए-पंजाब’’ कहलाता हूं। बाल अवस्था से ही मुझे धार्मिक शिक्षा देने के लिये मेरी माता राज कौर ने भाई फेरू सिंह को गुजरांवाल की धर्मशाला का ग्रंथी मुर्कर कर दिया था। इसी कारण सभी धर्मो के लिये मेरे मन में सम्मान है। अगर मैने चनिओट के कारीगरों से पांच लाख रूपया खर्च करके दरबार साहिब को स्वर्ण मंदिर में तब्दील किया है, तो मैने विश्वनाथ मंदिर बनारस के लिये बाईस मन सोना भी दान किया है तथा पीर बहावल हॅक के मजार को भी पैंतीस सौ रूपये सालाना जागीर लगाई हुई है। मेरे पूर्वज गुजरांवाला के इलाके के पशु चराने वाले मामूली चरवाहे थे तथा भगवान ने मुझे बादशाहत बख्शी है। आज मेरा राज्य सतलुज से पेशावर तथा तिब्बत की सीमा से सिन्ध तक फैला हुया है। मैने लाहौर, पेशावर, कशमीर व मुल्तान चार विशाल सूबे स्थापित किये है। वाहिगुरू ने चाहा तो एक दिन वो भी आयेगा जब दिल्ली के लाल किले पर भी ‘सरकार-ए-खालसा’ का केसरी निशान लहराने लगेगा। रणजीत सिंह की जीत का परचम हवा में लहराता होगा। दिल्ली दूर नही। ये सब सच्चे पातशाह की रहमते है, सब कुछ उस उपर वाले का दिया हुया है, फिर मैं उसे कैसे भूल जाउं? मैं आज तक सरकारी दस्तावेजों पर दस्तखत भी, ‘श्री अकाल सहाय-रणजीत सिंह’ लिखकर ही करता हूं मैं ‘महाराजा’ सुनने की जगह ‘सिंह-साहिब’ सुनना ज्यादा पसंद करता हूं, मैं गुरू की रजा /इच्छा/ को मानने वाला मनुष्य हूं। मैं हर कार्य वाहिगुरू का ओट-आसरा लेकर करता हूं। फिर सब ताकतें मेरे सामने घुटने टेक देती है। लोहे को हाथ लगाउं सोना बन जाता है’’
‘‘आपकी दियानतदारी व नेकी का यश तो सारी दुनियां गाती है। मैने सुना है आप किसी गरीब के घर पर अपनी पीठ पर लादकर अनाज की बोरी छोड़कर आये थे’’ मोरां ने भी हां में हां मिलाई।
‘‘कोई दो सिखों को इक्टठे करके दिखाये, मैने सिखों की बारह मिसलों को इक्ट्ठा करके एक केन्द्रीय सल्तनत कायम की है, मैं अपने से ज्यादा अपने सतगुरू की महिमा को पहल देता हूं। इसी लिये अमृतसर में किला गोबिन्दगढ, गुरू रामदास बाग तथा यहां तक कि अपने रसाले ;जत्थेद्ध का नाम भी ‘गुरू हरि-राये’ गुरू साहिबान के नाम पर रखा है। इसी लिये जब मैने अपना सिक्का चलाया जो उसे ‘नानकशाही’ सिक्के का नाम दिया। उसकी एक तरफ गुरू नानक, बाला तथा मर्दाना जी की तस्वीर बनवाई तथा दूसरी तरफ खुदवाया ‘अकाल पुरूष जी सहाय, देगो, तेगो, फतेह, नुसरत वेदरंग, याफतज नानक गोबिंद सिंह’’
‘‘लेकिन आप तो दूसरे शासको वाले भी सारे शौक पूरे करते है, मुजरे देखना, शराब पीना तथा आपकी अय्याशी के ड़ंके तो इंगिलिस्तान तक बज रहे है’’ मोरां ने महाराजा को जैसे कुछ याद दिलाने की कोशिश की।
‘‘अगर मैं एक सिख हूं, तो एक शासक भी हूं। मैं वो करता हूं जो एक निपुण शासक को करना चाहिये। एक प्रौढ शासक बनने पर हकूमत करने के लिये ये चीजें भी जरूरी है’’ महाराजा बोला।
‘‘इसी लिये तो मैने अर्ज की थी कि एक शासक होने के कारण आपको अपने नाम का सिक्का भी चलाना चाहिये’’ मोरां ने फिर तीर चलाया।
‘‘नही, मैं ऐसा हरगिज नही करूगां’’ महाराजा ने दो टूक जवाब दिया।
‘‘चलो अपने नाम का नही तो मेरे नाम का सिक्का चला दो, मैं भी मान जाउगीं कि किसी सिख महाराजा की रखैल हूं। अगर आप ऐसा कर दे ंतो कुरान की कसम है, मैं तमाम उम्र शेर-ए-पंजाब के कदमो में गुजार दूंगी। दिल्ली गुरूद्वारा साहिब से आये ग्रंथीयों के पैर आपने अपनी दाड़ी से साफ किये थे। सारी उम्र मैं आपके पैर अपनी जीभ से साफ करूंगी। इस बात का मैं आपको वचन देती हूं। ये एक सच्ची मुसलमानी का वायदा है’’ मोरां के दिल की बात जुबान पर आ गई।
मोरां के मुंह से ये बात सुनकर महाराजा फूल जाता है तथा महाराजा हाथ से ताली बजाता है’’ एक क्या, तेरे नाम के दो सिक्के चला दूंगा’’
ताली की आवाज सुनकर खिदमतगार आकर हाजिर हो जाते है।
‘‘सिक्के ढालने वाले सारे कारीगर व लाहौर के सारे सर्राफ जितनी जल्दी हो सके तो मेरे पास पेश करो। जो सुनियार नही आता उसे गिरफतार करके मुश्के बांधकर ले आयो, जाओ फौरन अमल हो’’
महाराजा की फौज कुछ ही देर में हवेली को सुनियारों व कारीगरों से भर देती है। सर्राफों का मुखीया सबकी ओर से महाराजा को फतेह बुलाता है ‘‘वाहिगुरू जी का खालसा, वाहिगुरू जी की फतेह’’
‘‘वाहिगुरू जी की फतेह’’ महाराजा की गर्ज भरी आवाज सुनकर सारे कारीगर सहम जाते है।
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‘‘हुक्म सिंह-साहिब?’’ सर्राफों का मुखिया निवेदन करता है।
‘‘लाहौर सरकार दो सिक्के जारी कर रही है। एक सोने का व एक चांदी का मोरां कंचनी की तस्वीर बनी होनी चाहिये उस पर, तथा साथ ही मोर पंख भी, आ गई समझ? मोरांशाही सिक्का, कंचनी सिक्का, रातों-रात ये सिक्के तैयार होकर एक सप्ताह के अंदर-अंदर मेरे सारे राज्य में फैल जाने चाहिये। जाओ कल सवेरे तक मैं सिक्के देखना चाहता हूं’’।
‘‘लेकिन, महाराज, ये कैसे संभव हो सकता है? एक रात में इतना बड़ा काम कैसे हो सकता है?’’
‘‘अगर नही हो सकता तो कल को अपने परिवार वालों से कह देना कि वे तुम्हारी रोटी न पकाये, क्योंकि तुम्हे लाहौर सरकार सजा-ए-मौत तो दे सकती है’’
‘‘महाराजा रहम करो......... महाराज तरस करो........ महाराज हमारी मजबूरी समझो.............. रातो-रात हम कच्चा माल कहां से पैदा करेंगें?’’
‘‘शाही खजाने में से सोना चांदी, जितना चाहिये ले लो, कारीगर चाहे बाहर से मंगवाने पड़े, मंगवाओ, लाहौर सरकार से जो मदद चाहिये, ले लो, सिक्का हर कीमत पर चलना चाहिये, अब तुम्हे जाने की इजाजत है। जाओ और हुक्म बजाओ’’
सब कारीगर व सुनियार पिंजरे का दरवाजा खुलने पर उड़ते पक्षीयों की तरह हवेली में से बाहर निकलते हैं। महाराजा को मुगल बादशाहों की तरह इमारतों के निर्माण व चित्रकला से भी काफी लगाव है......... महाराजा ने मुहम्मद बख्श जैसे चोटी के कुछ चित्रकारों को अपने दरबारी चित्रकार बनाया हुया है। जो महाराजा व उसकी रानीयों के चित्र बनाया करते है। इन चित्रकारों में से कांगड़े का एक चित्रकार हरी देव महाराजा का महबूब चित्रकार है। हरी देव ने महाराजा व मोरां के अनेक चित्र बनाये हैं। उन चित्रों में से गहनों से लदी मोरां की एक तस्वीर देखकर कंचनी सिक्के का छापा ;डाईद्ध लाहौर की टकसालों पर तैयार किया जाता है। सुबह तक सोने व चांदी के दो सिक्कों का नमूना महाराजा को मंजूरी के लिये भेज दिया जाता है। मोरां को सिक्के दिखाकर महाराजा को मंजूरी के लिये भेज दिया जाता है। मोरां को सिक्के दिखाकर महाराजा अपनी मंजूरी दे देता है। सप्ताह भर में ही सिक्कों का चलन शुरू हो जाता है।
कुछ ही दिन में लाहौर व अमृतसर की टकसालों में बनकर मोरांशाही सिक्के सारे पंजाब, काशमीर तथा पेशावर तक पहुंच जाते है। सिक्कों के जारी होने के बाद मोरां का घमंड़ लाहौर सरकार के केसरी झंड़े से भी उंचा हो जाता है। महाराजा अपनी रियासत के बारह नगरों के नाम बदलकर मोरां के नाम पर रख देता है......... फिर मोरांशाही गज.......... उसके बाद मोरांशाही नाप तोल........मोरांशाही बर्तन..... मोरांशाही बाग तथा यहां तक कि मोरांशाही पकवान भी मोरां को खुश करने के लिये महाराजा अपनी रियासत में प्रचलित करवा देता है। दिन-ब-दिन मोरां का गरूर उपर चढता चला जाता है तथा महाराजा का चरित्र नीचे गिरता चला जाता है....ं।
ज्भ्त्व्छम् व्थ् ड।भ्।त्।श्र। त्।छश्रप्ज् ैप्छळभ्
महाराजा के सभी शुभचिंतक अपने-अपने तरीके से रणजीत सिंह को रोकने, समझाने व चैकन्ना करते रहते है, पर मोरां के इश्क में अंधा हुया महाराजा किसी की एक नही सुनता।
उधर ड़ोगरे भाईयों ने महाराजा की खिदमत करते हुये हर संभव यत्न और कोशिशें करके देख ली है कि महाराजा उन्हे बड़ी-बड़ी पदवीयां दे, ईनामों व जागीरों से नवाजे तथा सबसे बड़ी बात कि जिसका महाराजा उनसे वादा करता आया है वह ‘राजा’ का पद उन्हे बख्शे। ड़ोगरे भाईयों को अपने सपने साकार होते नजर न आने पर महाराजा से नफरत व ख्ुानस हो जाती है। जब वे किसी एक ओहदे पर अपनी काबलियत दिखाने लगते तो महाराजा उन्हे किसी और महकमे में बदल देता। दरअसल महाराजा हर किसी के साथ ही ऐसा करता है। वह किसी एक कर्मचारी को ज्यादा देर तक एक काम पर नही रहने देता लेकिन ड़ोगरों को लगता कि महाराजा यह सब सिर्फ उनके साथ ही करता है।
ड़ोगरे भी राजा बनकर महाराजा की तरह अय्याशीयां करने की इच्छा रखते है।
‘‘पशु चोरांे की औलाद पंजाब पर बादशाहत कर सकती है तो हम क्यों नही?’’ रणजीत सिंह के पड़दादा नौध सिंह तथा उसका बाप बुध सिंह, जो पशु चुराने में माहिर माने जाते थे, के बारे में सोचकर ड़ोगरे दांत पीसने लग जाते है। प्रसिद्व सुनियार हाफिज मुहम्मद मुल्तानी का बनाया स्वर्ण जडि़त लाहौर तख्त, जिस पर महाराजा विराजमान होता है, हमेशा ड़ोगरों की आंखों के सामने घूमता रहता है। भविष्य के लिये फिक्रमंद ड़ोगरे भाईयों के दिल में महाराजा के प्रति ईष्र्या की आग जलती रहती है तथा वे उससे बागी होकर महाराजा को बरबाद करके खुद उसकी जगह विराजमान होने के मंसूबे बनाते रहते हैं।
ध्यान सिंह कहता है, ‘‘ये भी कोई जिंदगी है, कितनी देर तक मैं ड़योढी का पहरा देता रहा हूं तथा ये तो मेरी किस्मत ही है कि दासीयों व रानीयों की चापलूसी करके कुछ अहमियत हासिल कर सका हूं..........।
‘‘तूं तो फिर भी अच्छा है, मेरी ओर देख, मैं तो अभी तक भी घुड़सवार रसाले में ही हूं, घोड़ों की काठीयों ने तो मेरा पिछला भाग ही घिसा दिया है’’ गुलाब सिंह अपना दुखड़ा रोता है।
‘‘कोई बात नही भाई साहब, अभी तीर निशाने पर नही है, निशाने से उपर लगायेंगे तो अगर चूक भी जाये तो भी निशाने पर जा लगे’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘देखता चल’’ ध्यान सिंह अपनी मुट्ठीयां जोर से भींच लेता है।
ध्यान सिंह अपनी योजना के अनुसार सिख पंथ की अहम शख्सीयतों को भड़काने लग जाता है, ‘‘महाराजा, मोरां के साथ आठ-दस साल से बिना विवाह करवाये रह रहा है तथा खालसा राज में यह एक गुनाह-ए-अजीम है, लोगों की बहू-बेटीयों पर बुरा असर पड़ रहा है। क्या पता यह मोरां कौन है? हो सकता है अफगानों की गुप्तचर हो? हमने कितनी मुश्किलों व कुर्बानीयों से सिख राज हासिल किया है। हमें उसे संभालने के बारे में सोचना चाहिये। महाराजा को अपनी खराब होती छवि का ख्याल नही तो न सही लेकिन उसे सिख पंथ की हो रही बदनामी का ख्याल रखना चाहिये’’
‘‘बात तो तुम्हारी ठीक है, पर क्या किया जा सकता है? सरकार के सामने हम क्या चीज है? सामने से धर्म के ठेकेदार ये कहकर टाल-मटोल करते है, तो गुलाब सिंह अपनी चाल फिर चलता है।
‘‘लो हद हो गई, किया क्यों नही जा सकता, महाराजा सिख सिद्वांतों पर भी काफी हद तक पहरा देता है। पंथक सोच रखता है। अगर पांच सिंह साहिबान अकाल तख्त से फरमान जारी करे तथा मुकद्मा चलाकर उसे मनाही के हुक्म जारी करे, कहां भागेेगा वह?’’
ड़ोगरा भाईयों की मेहनत रंग लाती है तथा महाराजा को श्री अकाल तख्त साहिब पर तल्ब कर लिया जाता है।
श्री अकाल तख्त साहिब से जारी हुये फरमान की खबर महाराजा की बजाए गुप्तचरों के द्वारा मोरां केा पहले हो जाती है। जब महाराजा मोरां के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश करता है तो वह जान-बूझकर बेरूखी का ढोग करती है। महाराजा मोरां के स्वभाव में आई तब्दीली देखकर उससे उसके उखड़ेपन का कारण जानना चाहता है तो वह नखरा दिखाती हुई बोलती है, ‘‘महाराज लोग हमें इक्टठे देखकर क्यों सहन नही करते? हमारे प्यार का कोई-न-कोई दुश्मन नित्य नया पैदा हुया रहता है’’
‘‘अब कौन सा दुश्मन पैदा हो गया? बता मैं उसका सिर उसके धड़ से अलग कर दूंगा’’ महाराजा अपनी तलवार को म्यान में से थोड़ी सी बाहर निकाल लेता है।
‘‘अटारी का सरदार, ये देखों आपके नाम रूक्का ;कागजद्ध आया है’’
शाम सिंह अटारी का नाम सुनकर तैश में आया महाराजा ढीला पड़ जाता है तथा तलवार को म्यान में धकेलते हुये रूक्का पकड़ लेता है।
अकाली फूला सिंह जी के द्वारा जारी तल्बनामें के बारे में जानकर महाराजा सोच में डूब जाता है।
‘‘क्या हुया महाराज?’’ मोरां महाराजा के हाव-भाव पढने के यत्न करती है।
‘‘मामला संगीन है इसका मतलब, अटारी का सरदार ऐसे ही नही आया है। मोरां मुझे परसों अकाल बुंगे पर पेश होना ही पड़ेगा। मैं पंथ से बागी नही हो सकता’’।
‘‘इसका कोई हल, आप तो महाराज है’’
‘‘आज और परसों के दरम्यिान कल आता है, एक दिन व एक पूरी रात, इस समय के दरम्यिान बहुत कुछ हो सकता है, महाराज’’
महाराजा को मोरां का इशारा समझ में नही आता तथा वह अमृतसर जाने की तैयारी करने के लिये शाही किले को रवाना हो जाता है।
म्हाराजा के जाते ही मोरां भी कुछ गहने व सोना लेकर अमृतसर के लिये खुफीया सफर शुरू कर देती है। वह महाराजा से पहले अपनी बहन मोमला के पास पहुंच जाती है, जो अक्सर दरबार साहब माथा टेकने जाती रहती है।
उधर रणजीत सिंह एक छोटा सा लश्कर लेकर अमृतसर को रवाना हो जाता है। अमृतसर की सीमा मंे दाखिल होते ही रणजीत सिंह घोड़े से नीचे उतरा व जूते उतारकर नंगे पांव दरबार साहिब की ओर चल पड़ता है। हरिमंदर साहिब पर माथा टेककर आने के बाद वह बड़ी नम्रता के साथ अकाल तख्त पर दोनो हाथ जोड़कर ऐसे खड़ा हो गया जैसे उससे लड़ाई में दांत खट्टे करवाने के बाद दुश्मन फौज के सिपहसालार खड़े होते है।
दरबार साहिब के मुख्य गं्रथी के द्वारा मुकद्मे की कारवाई शुरू करते हुये सवाल किया जाता है’’ क्या आप मोरां के साथ अपने नाजायज शारीरिक संबधो का दोष मानते हो?’’
‘‘हां, कबूल करता हूं, ये तो सारी दुनियां जानती है’’
‘‘तुम्हे पता है खालसा राज में यह एक गुनाह......एक पाप है’’,
‘‘मैं एक राजा हूं, मैने सिख परिवार में जन्म लिया है व इसी लिये मेरे स्थापित किये राज को सिख राज कहा जाता है। मैने लोगों को मुगलों व अफगानांे से भयमुक्त करवाया है। मैने अपने आप को कभी राजा नही समझा तथा लोगों की सेवा आम इंसान बनकर की है। आप चाहें तो इसे सिक्ख शासक का राज कह लो, आपका दिल करे तो आप इसे खालसा राज कह लो, मेरे राज्य की सुखी हिन्दू प्रजा इसे राम राज्य कहती है। मुसलमान इसे बहिस्ती ;स्वर्गमयीद्ध राज्य कहते है’’
‘‘तुम अपने राज्य को क्या कहते हो’’ शाम सिंह अटारी पूछता है।
‘‘मैं इसे न्याय पालक राजा का लोक राज्य कहता हूं, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा का जीवन व्यतीत करने का अधिकार है। फिर उस राज्य के राजा को अपनी इच्छा की जिंदगी जीने का हक क्यों नही? मैं इस राज्य को बड़ी तेजी से पहाड़ की चोटी की ओर लेकर बढ रहा हूं। मुझे पता है जब ये अपनी शिखर पर चला गया तो फिर इसमें गिरावट आनी शुरू हो जायेगी तथा यह नीचे उतरना शुरू कर देगा। आप वह करें जो आपका न्याय है’’
अकाली फूला सिंह सवाल करता है,‘‘क्या तुम्हे अपने चरित्र में आ रही गिरावट की कोई जानकारी नही है?’’
‘‘मैं सर्वोच्च अदालत में खड़ा हूं इसलिये बहस नही करूगां, आप फैसला सुनाएं, मुझे सिर माथे कबूल होगा’’ रणजीत सिंह सिर झुका लेता है।
‘‘पांच सिंह साहिबान ने फैसला किया है कि तुम आगे से मोरां के साथ अपना नाजायज रिश्ता खत्म कर दो, आज के बाद उसके साथ तुम्हारा कोई संबध नही होगा, अब तक किये गुनाह के लिये तुम्हे नंगी पीठ पर सौ कोड़ो की सजा दी जाती है.........सजा मंजूर?’’
‘‘मंजूर’’ इतना कहकर रणजीत सिंह कमरबंद सहित किरपान उतारकर दूर रखने के बाद अपना चोगा उतारता है तथा घुटनों के भार बैठकर शीश झुकाता हुया अपनी नंगी पीठ अकाली फूला सिंह के सामने पेश कर देता है, ‘‘लो बांध लो मुझे टाहली के पेड़ के साथ तथा सजा दो’’।
मौके पर उपस्थित कई सिंह महाराजा के हक में दलीलें देने लगे तथा महाराजा की सजा माफी के लिये जोर ड़ालने लगे, ‘‘महाराजा ने सजा कबूल ली है, ये महाराजा है हमें इसकी पदवी का ख्याल रखना चाहिये, प्रतीक के रूप में सिर्फ एक कोड़े की ही सजा दी जाये’’अकाली फूला सिंह व शाम सिंह एक दूसरे के मुंह की ओर हैरानी से देखते है, क्योंकि ये वही सिक्ख है, जिन्होने महाराजा को अकाल तख्त पर बुलाकर तन्खाहीया करार देने के लिये एड़ी चोटी का जोर लगाया होता है। बहुसंख्या के फैसले पर फूल चढाते हुये अकाली फूला सिंह कहता है, ‘‘तुमने सजा कबूल कर ली तो समझो प्राप्त कर ली, जाओ तुम्हे तन्खाह माफ’’।
रणजीत सिंह एक लाख पच्चीस हजार रूपये शुक्र्राने के देने का ऐलान करके दरबार साहब से बाहर आ जाता है। बाहर आकर घोड़े पर सवार होकर महाराजा अपनी फौजी टुकड़ी के साथ लाहौर की तरफ कूच कर लेता है।
ज्यों ही महाराजा अमृतसर की सीमा पार करता है तो अपने सिपाहीयों को आदेश देता है ‘‘तुम लोग किले में चले जाना, यहां से मैं तुम्हारे बिना अकेला ही आगे जाउंगां’’
आंख झपकते ही रणजीत सिंह की घोड़ी धूल उड़ाती कही अलोप हो जाती है..........
उधर मोरां जो महाराजा से पहले लाहौर पहुंच जाती है, अपनी हवेली में मायूस, अपने भविष्य की चिंता में डूबी हुई है, उसकी आंखों से छमा-छम आंसुओं की धारा बह रही होती है। कभी वह आंसू से पूंछकर अकड़ती हुई खुद को ढाढस बंधाती है, ‘‘कुछ नही होगा, मेरी बहन मोमला ने सब संभाल लिया होगा। उसे सब जानते है। फिर अगले ही पल वह ड़ोल जाती है तथा रणजीत सिंह का दिया हीरा निकालकर गौर से देखती है। अभी वह हीरा चाटने ही लगती है कि उसके कमरे का दरवाजा खड़कता है।
मोरां दरवाजे के पास जाकर सहमी सी आवाज में पूछती है, ‘‘कौन?’’
‘‘मोरां मैं!!!’’
मोरां बिना देरी किये झट से दरवाजा खोलती है
बाहर खड़े रणजीत सिंह को हैरत व उल्लास भरपूर लहजे में कहती है, ‘‘महाराज!’’ खुशी के आंसुओं से भीगी इस चीख के साथ वह झपटकर रणजीत सिंह को अपनी बांहों में जकड़ लेती है। ज्यों ही रणजीत सिंह मोरां के शरीर को अपनी बांहों में जकड़ उसके नाजुक बदन को कस लेता है तो तड़ातड़ करके मोरां की कुर्ती ;कमीजद्ध के सारे बटन टूट जाते है।
अंतिका-
इस घटना के बाद महाराजा रणजीत सिंह ने शाही रिवायतों के अनुसार मोरां से बाकायदा दो बार विवाह करवाया। एक इस्लाम मत अनुसार व दूसरा सिक्ख धर्म मर्यादा के अनुसार। मोरां ने एक पुत्री को भी जन्म दिया। कई वर्ष तक महाराजा की हवसपूर्ती करते रहने वाली मोरां को रानी गुलबानों से शादी रचाने के बाद रणजीत सिंह ने पठानकोट में भारी जागीर बख्शकर लाहौर तथा अपनी नजरों से सदा के लिये दूर कर दिया। पठानकोट के किले में मोरां अपनी अंतिम सांस तक रही। कभी-कभार दिल किया तो महाराजा मोरां के पास ठहरता तथा उसका मुजरा देखता। मोरां की लड़की के आगे लड़की पैदा हुई, वजीर बेगम। मोरां की दोहती ;नातिनद्ध वजीर बेगम के आगे लड़की पैदा हुई, यानि मोरां की पड़दहोती मुमताज बेगम उर्फ मुम्मों, जो इंदौर के महाराजा तकोजी राव तथा बम्बई के मेयर मिस्टर बावला की रखैल रही तथा अपने समय की प्रसिद्व नर्तकी के तौर पर प्रसिद्व हुई। महाराजा ने मोरां के नाम पर अनेक और वस्तुओं का नामकरण भी किया।
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